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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
उपयोग को उसमें एकाग्र करे तो आत्मा का स्वरूप समझ में आ सकता है। वस्तु स्वयं अन्दर में है और खोजने के लिये बाहर भटकता है, वह कैसे मिले ? शास्त्रकार, आत्मद्रव्य के ध्रुवस्वरूप को पारिणामिकभावरूप से वर्णन करके, उसका लक्ष्य कराते हैं और रागादिक का या पर का लक्ष्य (एकत्वबुद्धि) छुड़ाते हैं । आत्मा, त्रिकाल ज्ञानस्वरूप है, वह सर्वविशुद्ध है। ऐसे स्वभाव का भान करने से जो भावश्रुतज्ञान होता है, वह अपूर्व धर्म है - ऐसा भावश्रुत प्रगट करना, वह जैनशासन का सार है ।
यह भगवान के घर की बात है, अर्थात् यह बात आत्मा के स्वभाव की है। यह आत्मा भी भगवान है न! भगवान, अर्थात् महिमावन्त; उसका परमस्वभाव है। क्षणिकभावों को भी परमभाव नहीं कहा, परन्तु त्रिकाल एकरूप पारिणामिकभाव को परमभाव कहा है। उसके सन्मुख होकर आत्मा का अनुभव करने से सम्यक्भावश्रुत प्रगट होता है । वह भावश्रुत, सम्पूर्ण आत्मा को जानता है । आत्मा का शुद्धद्रव्य कैसा, उसकी पर्याय कैसी ? - उन सबको भावश्रुत का एक भाग, अर्थात् शुद्धद्रव्यार्थिकनय स्वसंवेदन से परमशुद्धभाव को ग्रहण करता है । उस स्वसंवेदनरूप भावश्रुत में शब्द नहीं, विकल्प नहीं; स्वभाव में अन्तर्मुख होने पर चैतन्य के समुद्र में से जो ज्ञान निर्झर झरा, वह भावश्रुत है । उस भावश्रुत में त्रिकाल द्रव्य को और वर्तमान पर्याय को - एक साथ दोनों को जाने की सामर्थ्य है ।
जैसे -- शरीर, अवयवी है और हाथ, पैर, आँख, उसके अवयव हैं; उसी प्रकार ज्ञानशरीरी आत्मा में प्रमाण, वह अवयवी और नय, वह् अवयव है । ध्रुव, वह अवयवी और अवस्था, वह