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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
___धर्म का अनादर, देव-गुरु की निन्दा इत्यादि कारणों से तीव्र, दर्शनमोह, ज्ञानावरण इत्यादि कर्म बँधते हैं और पूजन-दान इत्यादि शुभकारणों से स्वर्ग की गति इत्यादि शुभकर्म बँधते हैं; बन्ध के कारणरूप ऐसे अशुद्धपरिणाम, वे शुद्धद्रव्यदृष्टि से जीव में नहीं हैं। स्वसन्मुख होकर आत्मा, सम्यग्दर्शनादि शुद्ध परिणामस्वरूप परिणमित होता है, वह मोक्ष का कारण है। वह मोक्ष-कारणरूप पर्याय भी शुद्धद्रव्यदृष्टि में नहीं आती, वह पर्यायदृष्टि का विषय है। द्रव्यदृष्टि, द्रव्य को एकरूप देखती है; इसलिए यहाँ कहा है कि 'सर्व विशुद्ध पारिणामिकपरमभाव ग्राहक शुद्ध उपादानभूत शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से जीव, कर्तृत्त्व-भोक्तृत्व से तथा बन्ध-मोक्ष के कारणरूप.परिणाम से शून्य है।'
मोक्ष का कारण या मोक्ष; बन्ध का कारण या बन्ध; इन समस्त अवस्थाओं के समय ध्रुवद्रव्य तो एकरूप ऐसा का ऐसा ही है। पर्याय अनित्य है, द्रव्य नित्य है-इन दोनों की सापेक्षता से वस्तु की सिद्धि है। उसमें दो नयों को विरोध नहीं रहता। दोनों नयों के विषय भिन्न-भिन्न हैं परन्तु परस्पर सापेक्ष द्रव्य-पर्याय की सापेक्षता, वह आत्मवस्तु है।
देखो, यह आत्मवस्तु को जानने की विधि!
जो शुद्धद्रव्य को लक्ष्य में लेता है - ऐसे शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से देखने पर शुद्ध जीवद्रव्य कर्ता-भोक्ता के भावों से रहित है; शुद्ध उपादानरूप आत्मद्रव्य, राग-द्वेष से तो रहित है; और मोक्ष के कारणरूप जो परिणाम, वह पर्याय है, वह भी शुद्धद्रव्यदृष्टि का विषय नहीं है। वस्तु का परमभाव, अर्थात् ध्रुव एकरूप त्रिकाल भाव, वह पारिणामिकभाव है। वह त्रिकाली ज्ञायकभाव बन्धपरिणाम