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________________ 60 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा ___धर्म का अनादर, देव-गुरु की निन्दा इत्यादि कारणों से तीव्र, दर्शनमोह, ज्ञानावरण इत्यादि कर्म बँधते हैं और पूजन-दान इत्यादि शुभकारणों से स्वर्ग की गति इत्यादि शुभकर्म बँधते हैं; बन्ध के कारणरूप ऐसे अशुद्धपरिणाम, वे शुद्धद्रव्यदृष्टि से जीव में नहीं हैं। स्वसन्मुख होकर आत्मा, सम्यग्दर्शनादि शुद्ध परिणामस्वरूप परिणमित होता है, वह मोक्ष का कारण है। वह मोक्ष-कारणरूप पर्याय भी शुद्धद्रव्यदृष्टि में नहीं आती, वह पर्यायदृष्टि का विषय है। द्रव्यदृष्टि, द्रव्य को एकरूप देखती है; इसलिए यहाँ कहा है कि 'सर्व विशुद्ध पारिणामिकपरमभाव ग्राहक शुद्ध उपादानभूत शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से जीव, कर्तृत्त्व-भोक्तृत्व से तथा बन्ध-मोक्ष के कारणरूप.परिणाम से शून्य है।' मोक्ष का कारण या मोक्ष; बन्ध का कारण या बन्ध; इन समस्त अवस्थाओं के समय ध्रुवद्रव्य तो एकरूप ऐसा का ऐसा ही है। पर्याय अनित्य है, द्रव्य नित्य है-इन दोनों की सापेक्षता से वस्तु की सिद्धि है। उसमें दो नयों को विरोध नहीं रहता। दोनों नयों के विषय भिन्न-भिन्न हैं परन्तु परस्पर सापेक्ष द्रव्य-पर्याय की सापेक्षता, वह आत्मवस्तु है। देखो, यह आत्मवस्तु को जानने की विधि! जो शुद्धद्रव्य को लक्ष्य में लेता है - ऐसे शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से देखने पर शुद्ध जीवद्रव्य कर्ता-भोक्ता के भावों से रहित है; शुद्ध उपादानरूप आत्मद्रव्य, राग-द्वेष से तो रहित है; और मोक्ष के कारणरूप जो परिणाम, वह पर्याय है, वह भी शुद्धद्रव्यदृष्टि का विषय नहीं है। वस्तु का परमभाव, अर्थात् ध्रुव एकरूप त्रिकाल भाव, वह पारिणामिकभाव है। वह त्रिकाली ज्ञायकभाव बन्धपरिणाम
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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