________________
ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
से रहित है; इसलिए शुद्धद्रव्य में बन्ध के कारणरूप मिथ्यात्वादि विकार नहीं है और मोक्ष के कारणरूप जो शुद्ध सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्र पर्याय, अर्थात् निश्चयमोक्षमार्गरूप परिणाम, वह भी पर्याय का विषय है। वह उपशम आदि तीन भावोंरूप है, वह पारिणामिकभावरूप नहीं है । द्रव्य, एकरूप है, वह पारिणामिकभावरूप है; ध्रुव स्वयं मोक्ष के कारण-कार्यरूप नहीं है, वह तो कारण-कार्यपने से पार एकरूप त्रिकाल है। वह स्वयं मोक्षमार्ग अथवा मोक्षरूप नहीं है; मोक्षमार्ग और मोक्ष, वे दोनों तो उसकी निर्मल पर्यायें हैं ।
61
श्री समयसार, गाथा 6-7 में 'एक ज्ञायकभाव' बतलाते हुए अन्त में कहा है कि शुद्ध आत्मा को ज्ञान-दर्शन - चारित्र भी नहीं है.... तो कहीं उन ज्ञानादि गुण-पर्यायों का अभाव नहीं हो गया है, आत्मा कहीं उन ज्ञान-दर्शन- चारित्र से रहित नहीं हो गया है परन्तु आत्मा के अभेद अङ्गों में उन ज्ञानादिक के भेद दिखाई नहीं देते। समस्त गुण - पर्यायों को पी गया होने से, एकरूप शुद्ध आत्मद्रव्य ही अभेद दिखता है ।
अहो ! जिनमार्ग अलौकिक है । जिनमार्ग कहो या आत्मा के अनुभव का मार्ग कहो। ऐसी आत्मवस्तु को जानने से, अनुभव करने से ही सम्यग्दर्शन और वीतरागता होती है ।
धर्मी की दृष्टि का ध्येयरूप शुद्ध आत्मा एकरूप है । उसमें 'यह दृष्टि और यह उसका ध्येय' - ऐसे दो भेद नहीं हैं । दृष्टि एकरूप आत्मा को ही देखती है। लो, यह दीपावली का ऊँचा माल! दीपावली नजदीक आती है न! इसलिए आत्मा को निहाल करे - ऐसा यह बौनी का माल है । यह दीपावली की उत्तम बौनी