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________________ 62 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा दी जाती है। शुद्ध आत्मा को दृष्टि में लेने पर सम्यग्दर्शनादि दीपक प्रगट हुए, यही अपूर्व दीपावली है। भगवान तेरा स्वरूप सत्, शाश्वत् ध्रुव है; उसकी सन्मुखता से मोक्षमार्ग की पर्याय प्रगट होती है परन्तु वह पर्याय एक समय की है और द्रव्य त्रिकाल है। अरे जीव! तेरा स्वरूप कैसा है ? -- वह तो पहचान! जैसे, सर्वज्ञ परमेश्वर... वैसा तू है। बन्ध के कारणरूप मिथ्यात्वादि पापपरिणाम और मोक्ष के कारणरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र परिणाम, ये दोनों प्रकार के भाव, एक समय की पर्यायरूप हैं। उस एक समय की पर्याय को ही देखने से सम्पूर्ण आत्मा नहीं पहचाना जाता। नित्य टिकनेवाला जो सम्पूर्ण सत्स्वभाव है, उसे देखने पर आत्मा सत्स्वरूप से प्रतीति में आता है। शुद्ध आत्मा का निर्विकल्प सम्यग्दर्शन, स्वसंवेदनज्ञान और स्वरूप में स्थिरतारूप चारित्र - ऐसे जो मोक्ष के कारणरूप परिणाम हैं, वे भी पर्यायदृष्टि का विषय है; द्रव्यदृष्टि का वह विषय नहीं है। एक पर्याय, सम्पूर्ण द्रव्य नहीं है, यह बताने के लिये ध्रुवद्रव्य को बन्ध -मोक्ष के कारण से रहित कहा है। पारिणामिकभाव, बन्ध-मोक्षपरिणाम से शून्य है, अर्थात् द्रव्य के त्रिकाली ध्रुवभाव में वे परिणाम नहीं हैं। वे परिणाम तो पर्यायभावरूप हैं। द्रव्यभाव और पर्यायभाव - ऐसे दो भावरूप (द्रव्य-पर्यायरूप) वस्तु है; वह किसी के द्वारा की गयी नहीं, परन्तु स्वभाव से ही वैसी है। वस्तु का जो अंश पलटता है, वह पर्याय और त्रिकाल टिकता है, वह ध्रुव है - ऐसी वस्तु सत् है। उस सत् की यह प्ररूपणा है । सत् वस्तु जैसी है, वैसी भगवान ने देखी है और वाणी में कही है। भगवान ने वस्तु की नहीं है परन्तु जैसी है, वैसी जानी है।
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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