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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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सत्वस्तु में जो ध्रुव अंश है, वह पलटता नहीं है और जो पलटता अंश है, वह ध्रुव नहीं रहता। पर्याय पलटती है और ध्रुव नहीं पलटता, वह धारावाही एकरूप रहता है। बन्ध-मोक्षरूप पर्यायें, परिणमनरूप हैं और ध्रुवद्रव्य, अपरिणामी हैं। परम -पारिणामिकस्वभाव, वह परमभाव है, उसमें बँधना और मुक्त होना - ऐसी क्रिया नहीं होती; इसलिए वह निष्क्रिय है - सदा ऐसा का ऐसा एकरूप है। ज्ञायकस्वभावी आत्मा, परम सत् है। उस सत् स्वभाव की पूर्णतारूप जो परमपारिणामिकभाव है, वह द्रव्य अपेक्षा से ध्रुव अपरिणामी है और पर्याय अपेक्षा से वह बन्धमोक्षरूप परिणमता है। सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान इत्यादि अनन्त गुण के निर्मल परिणाम, वे सब पर्यायरूप हैं; ध्रुव टिकता द्रव्य है, वह अपरिणामी है। ऐसी वस्तु है, वह भगवान ने देखी है और वैसी कही है। (इसमें अर्थसमय, ज्ञानसमय, शब्दसमय, तीनों आ गये हैं। जैसी सत्वस्तु है, वैसी ज्ञान में जानी और वैसा ही वाणी में कथन आया, इस प्रकार शब्दसमय, अर्थसमय, ज्ञानसमय - इन तीनों की सन्धि है।)
द्रव्य-पर्यायरूप आत्मा में पाँच भाव - चार पर्यायरूप और एक द्रव्यरूप बतलाकर, फिर उसमें से कौन से भाव मोक्ष के कारणरूप हैं? - यह समझायेंगे तथा ध्येयरूप कौन सा भाव है और ध्यानरूप कौन से भाव है? - यह भी बतलायेंगे।
समयसार की अमृतचन्द्रस्वामी रचित टीका का नाम आत्मख्याति है। आत्मख्याति, अर्थात् आत्मा की प्रसिद्धि । शुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्मा को वह प्रसिद्ध करती है - उसका अनुभव कराती है और इस दूसरी जयसेनस्वामी रचित टीका का नाम