________________
64
ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
'तात्पर्यवृत्ति' है। शास्त्र का तात्पर्य क्या है, अर्थात् उसका वास्तविक सार क्या है ? वह इसमें समझाया है। सर्व तत्त्वों में साररूप - प्रयोजनरूप - तात्पर्यरूप, शुद्ध आत्मा है, वह कैसा है? जिसे श्रद्धा-ज्ञान अनुभव में लेने पर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-आनन्द प्रगट हो, उसका यह वर्णन चल रहा है। सूक्ष्म पड़े तो भी ध्यान रखकर समझने जैसा है।
शास्त्र का तात्पर्य क्या? शब्दों में कहीं तात्पर्य नहीं रहा है; शब्द तो वाचक हैं, उनका वाच्य आत्मा में है। शरीर, कर्म इत्यादि परवस्तुएँ हैं, आत्मा में वे नहीं हैं; इसलिए वे आत्मा के लिये सार नहीं हैं। पुण्य-पाप भी आत्मा के स्वभाव की वस्तु नहीं हैं; इसलिए वह भी सार नहीं हैं। एक समय की पर्याय जितना या एक गुण जितना सम्पूर्ण आत्मा नहीं है; इसलिए पर्यायभेद या गुणभेद भी सार नहीं है। उनके लक्ष्य से तो राग की वृत्ति होती है। ध्रुव वस्तुरूप अखण्ड आत्मा, जिसमें भेद का विकल्प नहीं है, जिसमें रागादि का कर्तृत्व नहीं है, अथवा शरीरादि परवस्तु जिसमें नहीं है -- ऐसे शुद्ध आत्मा को अनुभव में लेना, वह सार है। वही शास्त्र का तात्पर्य है और उसमें भगवान आत्मा, प्रसिद्ध होता है।
हे जीव! नित्यानन्द भगवान तू स्वयं है। तेरे स्वभाव का यह वर्णन है। सन्तों द्वारा अनुभव किये गये आत्मा का यह वर्णन है। आत्मा में दूसरा (अर्थात्, परद्रव्य) तो नहीं; एक समय की दशा है अवश्य, परन्तु वह एक समय की अवस्था स्वयं ध्रुव द्रव्यरूप नहीं है; इसलिए ध्रुवस्वभाव की दृष्टि में वह पर्याय नहीं दिखती; सदृश एकरूप वस्तु ही दिखती है। उस ध्रुववस्तु में पर्याय का कर्तापना-भोक्तापना इत्यादि नहीं है। जहाँ पर्याय ही नहीं दिखती,