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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 65 वहाँ कर्ता-भोक्तापना इत्यादि क्रियाएँ कहाँ से होंगी? वे क्रियाएँ तो पर्याय में होती हैं; द्रव्य में नहीं। तेरे अन्दर ऐसा सच्चिदानन्द परमात्मा, ज्ञान-आनन्द का महाभण्डार विराज रहा है। ऐसा भगवान आत्मा, वह किस नय से कैसा ज्ञात होता है ? वह यहाँ बताते हैं। जो अपना ध्रुव, शाश्वत् परिपूर्ण स्वभाव है, उसे अनन्त काल में जीव ने नहीं जाना है; पर्याय के परिवर्तनशील विकारभाव जितना ही अपने को मान लिया है और उसी में अटक गया है परन्तु बापू! तेरी सम्पूर्ण वस्तु अन्दर बाकी रह गयी है। ज्ञान -आनन्द का महाभण्डार अन्दर भरा है, उसे तू भूल गया है। व्यवहारनय का विषय जाना, परन्तु शुद्धनय के विषयरूप परमार्थ को तूने नहीं जाना है, जबकि प्रयोजनभूत तो वह है। - आत्मा की पर्याय, प्रति समय पलटती है। जब वह अपने स्वभाव के लक्ष्य से एकाग्र होकर पलटती है, तब मोक्षमार्ग और मोक्षपर्याय प्रगट होती है। पर्याय अपेक्षा से देखने पर वस्तु स्वयं पलटती दिखती है और ध्रुवदृष्टि से देखने पर सदृश एकरूप शाश्वत् दिखती है। भाई! मनुष्य अवतार प्राप्त हुआ, उसमें सर्वज्ञदेव द्वारा कथित ऐसा तेरा आत्मस्वभाव तू जान तो सही! आत्मा कैसा है, वह लक्ष्य में भी न ले तो उसमें एकाग्रता का प्रयोग कहा से होगा? लक्ष्य को किसमें एकाग्र करने से शान्ति होती है ? किसमें लक्ष्य करने से मोक्षमार्ग प्रगट होता है? उस वस्तु को ख्याल में लेकर, उसमें एकाग्रता का उद्यम करने से मोक्षमार्ग प्रगट होता है। उस वस्तु को यहाँ आचार्यदेव समझाते हैं। ऐसी समझ का अवसर कभीकभी ही महान भाग्य से प्राप्त होता है।
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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