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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
शरीरादि जड़ की क्रियाओं में तो आत्मा नहीं है, पुण्य-पाप में अथवा राग-द्वेष की वृत्तियों में भी आत्मा नहीं है; एक समय की निर्मलपर्याय में भी सम्पूर्ण आत्या समाहित नहीं हो जाता। अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य से भरपूर परिपूर्ण आत्मा, अखण्ड एक ध्रुवस्वभावी है, वह परमभाव है; उसे पहचानने पर, उसके सन्मुख होने पर सम्यग्दर्शनादि होते हैं; इसके अतिरिक्त कहीं बाह्य में, राग में या शरीर की क्रिया में आत्मा को ढूँढे तो वह प्राप्त हो - ऐसा नहीं है। तुझे आत्मा को ढूँढना होवे तो देख अपने ध्रुवस्वभाव में! वहाँ तुझे चैतन्यमूर्ति, आनन्द का सागर भगवान आत्मा दिखेगा।
जहाँ चैतन्यगुणों की खान भरी है, वहाँ नजर डाले तो उसकी प्राप्ति, अर्थात् अनुभव हो, परन्तु अन्यत्र शोधे तो कैसे मिले? भाई! निर्णय तो कर कि तेरे गुणों की खान कहाँ है ? तेरे गुणों की खान, राग में नहीं होती। जड़ की खान में तेरे गुण नहीं भरे होते; तेरे गुण तो तेरे ध्रुव ज्ञायकस्वभाव में भरे हैं। उस ध्रुवखान को खोदने पर (शोधने पर), उसमें से सम्यग्दर्शन और केवलज्ञान के रत्न निकलेंगे। सोना चाहिए हो तो सोने की खान कहाँ है ? - वह पहचान कर उस खान को खोदना चाहिए; स्वर्ण के बदले कोयले की खान खोदने लगे तो परिश्रम व्यर्थ जाता है।
उसी प्रकार जिसे ज्ञान-आनन्द चाहिए हो, उसे जानना चाहिए कि वह किस खान में भरे हैं ? शरीर में ज्ञान-आनन्द नहीं भरे हैं; वह तो मल-मूत्र की खान है; पुण्य-पाप, राग-द्वेष में भी ज्ञान -आनन्द नहीं है; वह आकुलता की खान है।आनन्दकन्द ध्रुवस्वभाव ही ज्ञान-आनन्द की खान है, उसमें से अतीन्द्रिय ज्ञान-आनन्द का प्रवाह बहता है। ध्रुव में से पर्याय आती है - ऐसा कहा जाता है