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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 67 परन्तु वस्तुतः ध्रुव में ध्रुवत्वधर्म और पर्यायत्वधर्म - ऐसे दोनों धर्म अलग-अलग हैं। ध्रुव, वह ध्रुव है और पर्याय, वह पर्याय है; एक के कारण दूसरे का होना कहना, वह व्यवहार है। वस्तु स्वयं ही द्रव्य और पर्याय - ऐसे एक साथ दो धर्मोंवाली है ... ऐसा अनेकान्तस्वरूप है। उस स्वरूप से पहचानने पर आत्मा प्राप्त होता है, अर्थात् अनुभव में आता है। अहो! यह तो आत्मा की प्राप्ति का अलौकिकमार्ग है ! समय -समय की पर्याय दूसरे के कारण तो नहीं, ध्रुव भी उसका कारण नहीं है; पर्याय का कारण, पर्यायधर्म स्वयं है, अर्थात् वह निरपेक्ष है। यदि ऐसा नहीं मानो तो वस्तु में द्रव्य और पर्याय - ऐसे दो धर्म सिद्ध नहीं होते। वस्तु, सामान्य-विशेषरूप अथवा द्रव्य-पर्यायरूप अथवा उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप है; उसमें दोनों धर्म-एक साथ हैं। ऐसे आत्मा को जानने से पर्याय, ध्रुव चिदानन्दस्वभाव के सन्मुख झुकती है; इसलिए वह निर्मल होती है, वह धर्म है, वह मोक्षमार्ग है, वह सुख है। __ आत्मा का जो सर्वविशुद्ध परमपारिणामिकस्वभाव है, वह बन्ध-मोक्षरूप नहीं है, वह तो द्रव्यात्मलाभहेतुक है। उस स्वभाव की दृष्टि में बन्ध-मोक्ष पर्यायें नहीं आती, वह तो द्रव्य के आत्मलाभ को ही देखती है। द्रव्य के स्वरूप का लाभ, अर्थात् द्रव्य का अस्तित्व, वह पारिणामिकभावरूप है; उस ध्रुवभाव में उदय या निर्जरा, बन्ध या मोक्ष नहीं है; इसलिए उनके कर्तृत्वरूप क्रिया भी ध्रुव में नहीं है। उत्पाद-व्ययरूप पर्याय में बन्ध-मोक्ष की क्रिया है; ध्रुव में नहीं; ध्रुव तो सहजभाव में एकरूप है। आत्मा को समझने के लिये परिश्रम करे, अर्थात् ध्यान रखकर
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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