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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
स्थिति पूर्ण होने पर कर्म, उदय में आकर खिर जाते हैं, वह सविपाकनिर्जरा है; और जीव के पुरुषार्थपूर्वक, कर्मों का खिर जाना, वह अविपाकनिर्जरा है अथवा सकाम और अकाम ऐसे दो प्रकार हैं । उसमें जीव के पुरुषार्थपूर्वक तप इत्यादि के द्वारा जो निर्जरा होती है, वह सकामनिर्जरा है; और इच्छा न होने पर भी, क्षुधा - तृषादि प्रतिकूलता आवे, उन्हें समभाव से सहन करे, वहाँ जो निर्जरा होती है, वह अकामनिर्जरा है । उसमें भी जीव का उस प्रकार का पुरुषार्थ तो है ।
- यहाँ तो कहते हैं कि पुद्गलकर्म की ऐसी अवस्थाओं को जीव जानता ही है; उसका कर्ता, जीव नहीं है। अजीवकर्म की अवस्थाओं को ज्ञान कैसे करे ? अनेक प्रकार के उदयगत कर्मों को अथवा उनकी निर्जरा को, कर्म के बन्ध को या उसके छूटनेरूप मोक्ष को इन सभी अवस्थाओं का ज्ञान, कर्ता भोक्ता नहीं है; जानता ही है। कर्म का पाक, कर्म में है; चैतन्य में कर्म का पाक नहीं है। चैतन्य का पाक, आनन्दरूप है; राग भी चैतन्य का पाक नहीं है।
जड़कर्म का उदय और उस ओर के शुभाशुभ उदयभाव, वह चैतन्यक्षेत्र की उपज नहीं है; इसलिए वह ज्ञान का कार्य नहीं है । ज्ञान का कार्य, अर्थात् धर्मी का कार्य; धर्मी का कार्य, अर्थात् शुद्धात्मा का कार्य, अथवा शुद्ध उपादान का कार्य; उस कार्य में राग नहीं है । शुद्ध उपादानरूप से आत्मा, रागादि का कर्ता नहीं है । जहाँ-जहाँ 'कर्ता नहीं है ' - ऐसा कहा जाता है, वहाँ सर्वत्र अकर्तृत्व की तरह अभोक्तृत्व भी समझ लेना, अर्थात् ' भोगता भी नहीं है ' - ऐसा समझ लेना । ज्ञान, समस्त परभावों का अकारक और अवेदक है ।