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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
त्रिकाली स्वभाव में उसका स्पर्श नहीं है; इसलिए उस स्वभाव को देखनेवाली पवित्रदृष्टि से देखने पर आत्मा, रागादिक का कर्ता-भोक्ता नहीं है। समवसरण में सर्वज्ञ भगवान ने ऐसा आत्मा दिखलाया है; चक्रवर्ती-इन्द्र और गणधर आदरपूर्वक वह उपदेश झेलकर ऐसा अनुभव करते हैं । सूक्ष्म और अतीन्द्रिय होने पर भी समझ में आ सके - ऐसी यह बात है।
आत्मा का ज्ञान, रागादि विकल्पोंरूप नहीं होता। राग और ज्ञान सदा ही भिन्न हैं; इसलिए ज्ञानस्वरूप आत्मा, शुद्ध उपादानरूप से कर्म का अथवा राग का कर्ता-भोक्ता नहीं है। रागादि का कर्तृत्व, अशुद्ध उपादान में है; शुद्ध उपादान में नहीं। शुद्ध रपादान कहो या शुद्धनिश्चयनय का विषय कहो, उसके अनुभव से सम्यग्दर्शनादि होते हैं। ऐसा अनुभव करनेवाला जीव, कर्मों के उदय-निर्जरा का अथवा बन्ध-मोक्ष का कर्ता-भोक्ता नहीं है परन्तु उन्हें मात्र जानता ही है।
इस प्रकार मूल गाथा का अर्थ किया। अब, जयसेनस्वामी ने टीका में दिट्ठी जहेव णाणं..... इस पाठ के बदले दिट्ठी खयंपि णाणं.... ऐसा पाठान्तर स्वीकार करके दृष्टि के साथ क्षायिकज्ञान को लेकर उस क्षायिकज्ञान में अकर्तृत्व बताया है, वह बात करते हैं।
अब, दिट्ठी खयंपि णाणं - ऐसा जो पाठान्तर है, उसकी व्याख्या -
'मात्र दृष्टि ही नहीं, परन्तु क्षायिकज्ञान भी निश्चय से कर्मों का अकारक तथा अभेदक ही है। वैसा होता हुआ शुद्धज्ञानपरिणत जीव क्या करता है? जानता है। किसे?