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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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गया है; उसमें समस्त निर्मल गुण-पर्यायें समा जाती हैं परन्तु उनके भेद नहीं है। भेद को देखने पर विकल्प होता है और अभेद अनुभव में आनन्द का वेदन होता है; इसलिए भेद को गौण करके, अभेद आत्मा का अनुभव कराया है। यह जैन सिद्धान्त का महान् रहस्य है।
आत्मा का स्वभावभूत जो चैतन्यभाव, उसमें से रागादिक उदयभाव नहीं निकलते। जिस प्रकार बर्फ की शीतल शिला में से अग्नि नहीं निकलती; उसी प्रकार अकषायी शान्त चैतन्यरस का पिण्ड आत्मा, वह कषाय अग्नि को कैसे उत्पन्न करेगा और शान्तरस में उसका वेदन कैसे होगा? जो जिस स्वरूप होता है, वह उसे ही कर्ता और भोक्ता है। देहादि जड़ पदार्थ तो आत्मा में नहीं हैं; अत: आत्मा उन्हें कैसे वेदन करे और रागादि परभाव भी आत्मा के स्वभाव में नहीं हैं; अतः स्वभावदृष्टिवाला आत्मा, उन्हें कैसे भोगे? इस प्रकार जिसमें जो नहीं होता, उसे वह कर्ता या भोक्ता नहीं है। आत्मा का ज्ञायकस्वभाव विकार का अकर्ता और अवेदक है क्योंकि उसमें विकार नहीं है। ___भाई! तू स्वयं ऐसा स्वभावरूप है। तेरा ऐसा स्वभाव तुझे समझ में आये ऐसा है। भले ही सूक्ष्म और अतीन्द्रिय है परन्तु ऐसा नहीं है कि समझ में नहीं आये। रागादि को करना और भोगना तो जीव अनादि से कर ही रहा है, वह कोई शुद्ध आत्मा का कार्य नहीं है। शुद्ध आत्मस्वरूप क्या और उसका सच्चा कार्य क्या है ? .. यह अपूर्व बात आचार्यदेव ने इस समयसार में समझाई है।
शुद्ध आत्मा, जड़ को तो स्पर्श नहीं करता; राग को भी स्पर्श नहीं करता। अशुद्ध अवस्था में रागादि का स्पर्श-अनुभव है परन्तु