________________
20
ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
रागादिक को जाने भले ही, परन्तु उसरूप होकर - तन्मय होकर परिणमित नहीं होता और तन्मय नहीं होता; इसलिए उसका कर्ता -भोक्ता नहीं है - ऐसी ज्ञानचेतनारूप चक्षु से जीव शोभित होता है।
जगत् के जड़-चेतन पदार्थ, स्वतन्त्र ज्ञेय हैं और आत्मा, स्वतन्त्र ज्ञाता है। पदार्थ दृश्य हैं, आत्मा दृष्टा है; इनके मध्य कर्ताकर्मपने का सम्बन्ध नहीं है। जिस प्रकार नदी में पानी का पूर | प्रवाह बहता जाता हो और किनारे पर खड़ा हुआ मनुष्य, स्थिर
आँख से उसे देखता हो; वहाँ कहीं वह मनुष्य, प्रवाह में खिंच नहीं जाता। इसी प्रकार परिणमित हो रहे जगत् के पदार्थों को तटस्थरूप से जाननेवाला आत्मा, वह कहीं पर में खिंच नहीं जाता। जगत् के पदार्थों के कार्यों के कर्ता वे पदार्थ स्वयं ही हैं; आत्मा नहीं। यदि मकान, आहार, शरीर इत्यादि पुद्गलमय पदार्थों को आत्मा भोगे तो आत्मा भी पुद्गलमय हो जाएगा। वे पुद्गलमय पदार्थ तो पृथक् हैं और उनकी ओर की वृत्तियाँ भी ज्ञानभाव से पृथक् हैं। ज्ञान, उन वृत्तियों को भी नहीं करता – नहीं भोगता। इस शरीर के एक-एक रजकण को अथवा हाथ-पैर को आत्मा नहीं चलाता, आत्मा उनका दृष्टा / साक्षी है।
. जिसकी दृष्टि में अपना ऐसा ज्ञानस्वभावी आत्मा आया है, वह धर्मी जीव, रागादि विभाव का कार्य, ज्ञान को नहीं सौंपता; स्वयं उनका कर्ता नहीं होता। जैसे, आँख को रेत उठाने का काम नहीं सौंपा जाता; इसी प्रकार ज्ञानचक्षु को जगत् के अथवा राग के काम नहीं सौंपे जाते। आत्मा, ज्ञानमूर्ति चैतन्यपिण्ड है, उसका काम तो चैतन्यमय होता है। अज्ञानी जीव, भ्रम से चैतन्यभगवान को भी जड़ का / शरीर का कर्ता-भोक्ता मानते हैं परन्तु इससे कहीं