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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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यथार्थ वस्तुस्वरूप जानता है। यहाँ तो पर से भिन्नता के उपरान्त यह बताना है कि शुद्धज्ञान की दृष्टिवाले ज्ञानी को रागादिभावों का भी कर्ता-भोक्तापना नहीं है। ऐसे शुद्धज्ञान की दृष्टि होने पर निर्मल-वीतरागपर्याय हुई, इसका नाम धर्म है और यही परम अहिंसा है। भगवान ने ऐसी वीतरागी अहिंसा को परम धर्म कहा है।
प्रश्न - इसमें हमारे करने के लिए क्या आया?
उत्तर - भाई! इसमें करना यह आया कि जड़ से और राग से भिन्न अपना चैतन्यस्वरूप जैसा है, वैसा दृष्टि में लेकर उसका अनुभव करना; मोक्ष के लिए यही करने योग्य है। इससे विरुद्ध दूसरा कुछ कार्य चैतन्यप्रभु को सौंपना, वह हिंसा है, अधर्म है।
ज्ञानस्वरूप आत्मा, अपने से बाह्य में तो कुछ कर नहीं सकता। अशुद्ध उपादानरूप से भी अज्ञानी, मात्र राग को करता है परन्तु पर को तो अशुद्ध उपादानरूप से भी नहीं करता; और आत्मा के भान की सच्ची भूमिका में तो धर्मात्मा, रागादि को भी नहीं करता। अन्तर की अनुभव-दृष्टि में तो धर्मी अपने अतीन्द्रिय आनन्द को ही भोगता है। ऐसा आनन्द का वेदन ही धर्मी की धर्मक्रिया है। ऐसी क्रिया करनेवाले को ज्ञानी कहते हैं। धर्मी होने पर अपनी शान्त - ज्ञान-आनन्दमय वीतरागदशा को ही वह करता है और उसे ही भोगता है - तन्मयरूप से वेदन करता है।
व्यवस्थित भाषा निकले, इच्छानुसार शरीर चले, तथापि वे कार्य आत्मा के नहीं हैं। जिस कार्य में जो हो, उसका वह का होता है। भाषा में आत्मा नहीं है; भाषा में तो पुद्गल के रजकण हैं। भाषा के रजकणों की खान तो पुद्गलों में है; आत्मा की खान में