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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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का वेदन नहीं रहता; इसलिए वह धर्मी जीव, दु:ख इत्यादि परभावों का भोक्ता भी नहीं है।
अनुकूल संयोग में हर्ष की वृत्ति और प्रतिकूल संयोग में खेद की वृत्ति का वेदन, ज्ञान में नहीं है; ज्ञान का स्वरूप हर्ष-शोक से रहित है। वैसी वृत्ति होती है, उसे ज्ञानी, ज्ञानभाव से जानता अवश्य है कि ऐसी वृत्ति हुई परन्तु मेरा ज्ञान ही हर्ष-शोकरूप हो गया - ऐसा कोई ज्ञानी नहीं जानता। हर्षादि की वृत्ति के समय भी उससे रहित, अकारक-अवेदक ज्ञानरूप से ही धर्मी अपने को पहचानता है।
निर्मल ज्ञानपर्याय में राग का कर्तृत्व-भोक्तृत्व नहीं है तथा उस ज्ञानपर्याय में अभेद सम्पूर्ण शुद्ध आत्मा भी उनका अकर्ता
अभोक्ता है। -- ऐसा कहकर सम्पूर्ण ज्ञानस्वभाव, अकारक अभेदक बतलाया है। ऐसे आत्मा का भान हो, वह-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है और वह धर्म का मूल है। लोग दया को धर्म का मूल कहते हैं परन्तु वह तो मात्र उपचार है। दयादि के शुभपरिणाम कहीं मोक्ष के कारण नहीं हैं; वे तो पुण्यबन्ध का कारण हैं। ___यहाँ तो कहते हैं कि जैसे ज्ञान में हिंसा का अशुभभाव नहीं है; उसी प्रकार ज्ञान में दया का शुभभाव भी नहीं है। शुभ-अशुभभाव करने का काम, ज्ञान को सौंपना तो अज्ञान है; उसे ज्ञान का पता नहीं है।
जिस प्रकार पापभाव, ज्ञान का स्वभाव नहीं है; उसी प्रकार शुभविकल्प भी शुद्धज्ञान का कार्य नहीं है। इस प्रकार शुद्धज्ञानरूप से परिणमित ज्ञानी, रागादि को कर्ता नहीं है; मात्र जानता ही है।