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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
आवाज / भाषा के रजकण नहीं हैं, इसलिए आत्मा उसका कर्ता नहीं है। इसी प्रकार शरीर के रजकणों में भी आत्मा नहीं है। आत्मा उनका कर्ता नहीं है और धर्मदृष्टि में धर्मीजीव, विभाव का भी कर्ता नहीं है। धर्मात्मा की सच्ची क्रिया, अन्तर्दृष्टि से पहचानी जाती है। थोड़ा लिखा बहुत जानना' - ऐसा यह संक्षिप्त सिद्धान्त/ नियम सर्वत्र लागू करके, वस्तुस्वरूप समझ लेना चाहिए। ___ शुद्धचैतन्यस्वरूप आत्मा, परभाव का कर्ता नहीं है। ज्ञान कहो या आत्मा कहो; गुण-गुणी अभेद करके कहा कि शुद्ध आत्मा, रागादिक को तथा कर्मों को जानता है परन्तु उन्हें कर्ता नहीं है। देखो, यह साधकदशा की बात है - जिसे अभी इस प्रकार का व्यवहार है, तथापि शुद्धस्वभाव की दृष्टि में उसका कर्तृत्व छूट गया है .. ऐसे साधक की यह बात है।
निश्चयरत्नत्रयरूप मुनिदशारूप आत्मा परिणमित हो, वहाँ देह से वस्त्रादि छूट ही गये होते हैं और दिगम्बरदशा ही होती है। वहाँ वस्त्र छूटे, उनका आत्मा जाननेवाला है परन्तु छोड़नेवाला नहीं। आत्मा पर को ग्रहण करनेवाला अथवा पर को छोड़नेवाला नहीं है; परपदार्थ तो तीनों काल आत्मा से पृथक् ही हैं। जो छूटे हुए ही हैं, उन्हें छोड़ना क्या? 'यह मेरा है' - इस प्रकार अभिप्राय में खोटी पकड़ की थी, उसके बदले पृथक् को पृथक् जाना; इसलिए 'यह मेरा है' ऐसा मिथ्या-अभिप्राय छूट गया। अपनेपन की मिथ्याबुद्धि का त्याग हुआ और पर से भिन्न निजस्वरूप का सम्यक्भान हुआ; इस प्रकार धर्मी को सम्यक्त्वादि निजभाव का ग्रहण (अर्थात्, उत्पाद) और मिथ्यात्वादि परभावों का त्याग (अर्थात्, व्यय) है और जहाँ ऐसा ग्रहण- त्याग हुआ, वहाँ दु:ख