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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
तात्पर्य यह है कि ज्ञानी को विकल्प, ज्ञान के ज्ञेयरूप हैं परन्तु ज्ञान के कार्यरूप नहीं हैं। ज्ञानरूप से परिणमित हुआ जीव, रागादि कषायों का स्पर्श ही नहीं करता; स्पर्श किया तब कहलाये कि यदि उनके साथ एकता करे। जैसे आँख, अग्नि को स्पर्श नहीं करती, उसी प्रकार ज्ञानचक्षु शुभाशुभकषायरूप अग्नि को स्पर्श नहीं करती। यदि स्पर्श करे, अर्थात् एकत्व करे तो वह अज्ञान हो जाए; इसलिए ज्ञान, परभावों को स्पर्श नहीं करता। करता नहीं, वेदता नहीं, तन्मय नहीं होता -- ऐसा ज्ञानस्वरूप आत्मा ही सच्चा आत्मा है। राग को करे - ऐसा आत्मा, वह सच्चा आत्मा नहीं है, अर्थात् आत्मा का भूतार्थस्वरूप ऐसा नहीं है।
शुभराग इत्यादि व्यवहार क्रिया करते-करते निश्चय-- सम्यक्त्वादि होंगे - जो ऐसा मानता है, उसने वास्तविक आत्मा को नहीं जाना है परन्तु राग को / अनात्मा को ही आत्मा माना है, वह महामिथ्यादृष्टि है। सत्यभूत भूतार्थ आत्मा को जाने बिना, सम्यग्दर्शन नहीं होता; सम्यग्दर्शन के बिना चारित्रदशा, अर्थात् मुनिपना नहीं होता; और चारित्रदशा के बिना, मोक्ष नहीं होता। चारित्र | मुनिदशा के बिना तो सम्यग्दर्शन हो सकता है परन्तु चारित्रदशा, सम्यग्दर्शन के बिना कभी नहीं हो सकती; इसलिए मोक्षार्थी को सच्चे आत्मा का निर्णय करके, सम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहिए।
. श्रीगुरु करुणापूर्वक सम्बोधन करते हैं कि बापू! अनन्त काल में महामूल्यवान् ऐसा यह मनुष्यपना प्राप्त हुआ है और सत्यधर्म समझने का योग मिला है, उसमें यदि अभी अपने सत् स्वभाव को पहचानकर उसका शरण नहीं लिया तो चार गति में तुझे कहीं शरण नहीं मिलेगी। तू बाहर से अथवा राग से धर्म मना दे, इससे