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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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है। अमुक वस्तु को देखने पर ज्ञान, प्रसन्न / रागी होवे और अमुक वस्तु को देखने पर ज्ञान, नाराज / द्वेषी होवे - ऐसा ज्ञान में नहीं है। इसलिए वह राग-द्वेष का कर्ता नहीं है तथा उसके फल का भोक्ता भी नहीं है। ऐसा शुद्धज्ञानस्वरूप आत्मा है, उसे पहचानकर अनुभव करना, वह धर्म है।
अहो! अपना ज्ञानचक्षु कैसा है ? इसकी भी जीव को खबर नहीं है। भाई! परवस्तु तो तेरे ज्ञान से बाहर है, उसे कहीं ज्ञान प्राप्त नहीं करता। जिस प्रकार आँख, किसी बाह्य के पदार्थों को देखकर उनमें अपने को घुसा नहीं देती है; उसी प्रकार बाह्य के ज्ञेय पदार्थों को जाननेवाला ज्ञान, कहीं उन पदार्थों में अपने को घुसा नहीं देता। पदार्थ, ज्ञान में प्रविष्ट नहीं होते; ज्ञान से बाहर पृथक् ही रहते हैं। ज्ञान के अनुभव में तो आनन्द इत्यादि अपने अनन्त गुणों का रस समाहित है परन्तु परद्रव्य अथवा राग उसमें समाहित नहीं है। इस गाथा में भगवान आत्मा का ऐसा ज्ञानस्वरूप समझाया है।
जिस प्रकार आँख है, वह शरीर की शोभा है; इसी प्रकार भगवान आत्मा की शोभा चैतन्य आँख से है। चैतन्यचक्षु है, वही आत्मा की आँख है; उस आँख से आत्मा, कभी रागादि को कर्ता
भोक्ता नहीं है। कर्म को बाँधने-छोड़ने का उसका स्वभाव नहीं है -- ऐसी शुद्ध ज्ञानपर्यायरूप से परिणमित सम्यग्दृष्टि आत्मा, भले ही चौथे गुणस्थान हो तो भी, रागादिक का या देह-मन-वाणी की किसी क्रिया का कर्ता नहीं है। आत्मा तो अपनी ज्ञानचेतना के साथ अभेद होकर परिणमित हुआ, वहाँ कर्मचेतना का कर्तृत्व कहाँ रहेगा? सम्यग्दृष्टि, ज्ञानचेतनारूप ही परिणमित होता है,