Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ प्रस्तावना प्रवर टोडरमलजी से मिले थे। उन्होंने स्वयं इस बात का उल्लेख किया है कि टीकाएँ सिंघाणा नगर में रची गईं। उन्होंने रचने का कार्य किया और हमने बाँचने का। उनके ही शब्दों में' - "तब शुभ दिन मुहूर्त विषै टीका करने का प्रारंभ सिंघाणा नग्र विषै भया। सो वे तो टीका बणावते गये, हम बांचते गये / बरस तीन में गोम्मटसार ग्रन्थ की अड़तीस हजार, लब्धिसार-क्षपणसार ग्रन्थ की तेरह हजार, त्रिलोकसार ग्रन्थ की चौदह हजार, सब मिलि च्यारि ग्रन्थ की पैंसठ हजार टीका भई / पीछे सवाई जैपुर आए।" इसी के साथ उन्होंने यह भी उल्लेख किया है कि इस बीच वि.सं. 1817 में एक उपद्रव हो गया। __यह सुनिश्चित है कि पण्डितप्रवर टोडरमलजी वि.सं. 1811 में मुलतान वालों को रहस्यपूर्ण चिट्ठी लिख चुके थे। उसमें कहीं भी किसी रूप में ब्र. रायमल्लजी के नाम का उल्लेख नहीं है। यह भी एक अद्भुत सादृश्य है कि दोनों विद्वानों का साहित्यिक जीवन पत्रिका से प्रारंभ होता है। यह भी सम्भावना है कि पण्डित प्रवर के इस कृतित्व और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर ब्र. रायमल्लजी ने उनसे ग्रन्थ रचना के लिए अनुरोध किया हो। अतः सभी प्रकार से विचार करने पर यही मत स्थिर होता है कि ब्र. रायमल्लजी का जन्म वि.सं. 1780 में हुआ था। ___ रचनाएँ :- अभी तक ब्र. पं. रायमल्लजी की तीन रचनाएँ मिली हैं। रचनाओं के नाम इस प्रकार हैं :- (1) इन्द्रध्वजविधान-महोत्सव-पत्रिका (वि.सं. 1821) (2) ज्ञानानन्द श्रावकाचार (3) चर्चा-संग्रह। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि पण्डितप्रवर टोडरमलजी के निमित्त से ही ब्रह्मचारी रायमल्लजी साहित्यिक रचना में प्रवृत्त हुए। उनके विचार और इनका जीवन अत्यन्त सन्तुलित था, यह झलक हमें इनकी रचनाओं में व्याप्त 1. इन्द्रध्वज-विधान-महोत्सव-पत्रिका का प्रारंभिक 2. रायमल्ल साधर्मी एक, धरम सधैया सहित विवेक / सौ नाना विधि प्रेरक भयो, तब यहु उत्तम कारज थयौ / / दे. लब्धिसार, द्वि. स. पृ. 637 तथा