Book Title: Dhamma Kaha
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti

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Page 12
________________ धम्मकहा 20 11 (२) अनन्तमतीकी कथा अंगदेश की चंपानगरी में राजा वसुवर्धन थे उनकी रानी लक्ष्मीमती थी। उनके नगर में एक प्रियदत्त नाम का श्रेष्ठी अपनी अंगवती स्त्री के साथ सुख से निवास करता था। उनके एक अनंतमती नाम की रूपवान, अतिकुशल, जिनधर्मप्रिय कन्या थी। एक बार नन्दीश्वर के अष्टाह्निक पर्व की अष्टमी के दिन धर्मकीर्ति आचार्य के चरणों (पादमूल) में उन माता-पिता ने आठ दिन का ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया। क्रीड़ा में अर्थात् खेल-खेल में श्रेष्ठी ने अनंतमती को भी व्रत ग्रहण करा दिया। जब कन्या के विवाह का समय आया तब वह कन्या कहती है कि पिताश्री ! आपने तो तब ब्रह्मचर्य व्रत का ग्रहण कराया था अब विवाह से क्या प्रयोजन श्रेष्ठी ने कहा- मैंने तो | तुमको खेल मे ही बह्मचर्य व्रत ग्रहण करा दिया था यथार्थ में नहीं। कन्या कहती है कि व्रत के विषय में और धर्मकार्य में खेल कैसा? श्रेष्ठी ने कहा- वह व्रत भी आठ दिन पर्यन्त का था हमेशा के लिए नहीं। कन्या ने कहा- मुनिराज ने ऐसा कहा नहीं था इसलिए इस जन्म में मेरे विवाह का सब प्रकार से त्याग है। एक बार पूर्ण यौवन को प्राप्त हुई वह कन्या अपने घर के बगीचे में झूले में झूल रही थी। उसी समय पर विजयार्ध पर्वत के दक्षिण श्रेणी का किन्नरपुर नगर का विद्याधर राजा कुण्डलमण्डित अपनी स्त्री सुकेसी के साथ आकाश में जा रहा था। उसने अनंतमती को देखकर के विचार किया इसके बिना मेरे जीने का क्या प्रयोजन? इस प्रकार विचार करके शीघ्र ही अपनी वनिता को घर में छोड़कर के वहाँ आ गया। विद्या के बल से उस कन्या को उठाकर ले जाते हुए उसने वापस आती हुई अपनी स्त्री देखी। भयभीत हुआ वह विद्याधर पर्ण-लघु विद्या प्रदान करके अनंतमती को महा अटवी में छोड़ देता है। वहाँ रोती हुई उस कन्या को देखकर के भीलराज भीम अपनी बस्ती में लाकर के कहता है मेरे प्रधान पट्टरानी पद को ग्रहण करो। अनंतमती ने उसकी प्रधान पट्टरानी पद की किंचित् भी इच्छा नहीं की। रात्रि में वह भील उसका उपभोग करने के लिए उद्यत हुआ। व्रत के महात्म्य से वन-देवता ने उस कन्या की रक्षा की। और उस भीम को खूब पीड़ा दी। यह कोई देवी है ऐसा विचार करके डरे हुए उस भीम ने बनिजारे को वह कन्या समर्पित कर दी। उसने भी लोभ दिखाकर के विवाह की इच्छा की। कन्या ने विवाह स्वीकार नहीं किया। वह उस कन्या को लेकर के अयोध्या नगरी की कामसेना नाम की वेश्या के लिए अर्पित कर देता है। कामसेना उसको वेश्या के कार्य के लिए प्रेरित करती है। वह किसी भी प्रकार से तैयार नहीं होती है तब वह वेश्या सिंहराज नाम के राजा के लिए उस कन्या को दिखाती है। उसके रूप, सौन्दर्य पर आकृष्ट हुआ वह राजा उसके सेवन करने के लिए तैयार होता है तभी व्रत के महात्म्य से नगर देवता के द्वारा राजा के ऊपर उपसर्ग किया जाता है। राजा ने भय से उस कन्या को गृह से निकाल दिया। खेद से कर्म विपाक का चिंतन करते हुए वह बैठी थी तभी कमलश्री नाम की आर्यिका ने उसको देखा। पूर्व जन्म के कर्म से पीड़ित यह कन्या है ऐसा चिंतन करके उन आर्यिका ने उसे अपने समीप शरण प्रदान की। एक बार प्रियदत्त सेठ अयोध्या नगरी के अपने साले जिनदत्त श्रेष्ठ के घर में आए। वहाँ समस्त वृत्तांत उन्होंने कहा। दूसरे दिन अतिथि के निमित्त भोजन करने के लिए चौक पूरने के लिए आर्यिका की श्राविका उन श्रेष्ठी के घर बुलाई गई। वह श्राविका अपने कार्य को पूर्ण करके वापस बस्ती में चली गई। प्रियदत्त सेठ ने चौक को देखकर अनंतमती का स्मरण किया। सेठ ने पूछा- किसने यह चौक पूरा है? तदनंतर वह श्राविका पुनः गृह में बुलाई गई। प्रियदत्त ने कहा- ये मेरी बेटी है। इस प्रकार हर्ष से महोत्सव किया। घर चलो, इस प्रकार कहने पर अनंतमती ने कहा-पिताश्री! मैंने संसार की विचित्रता को देख लिया है। अब मैं तप को ग्रहण करूँगी। तदनन्तर वह कन्या कमलश्री आर्यिका के समीप आर्यिका के व्रतों को ग्रहण करके अंत में संन्यासमरण करके सहस्रार स्वर्ग में देव होती है। ...

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