Book Title: Dhamma Kaha
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti

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Page 94
________________ धम्मकहा 8893 (१०) अरिहन्त भक्ति भावना चौंतीस अतिशयों से सहित, अष्ट महा प्रातिहार्य से संयुक्त, अनन्त चतुष्टय के साथ, निज चेतना की अनुभूति में लीन अठारह दोषों से रहित अरिहंत भगवान के लिए भाव विशुद्धि से युक्त अनुराग होना भक्ति है। अरिहन्त भगवान की भक्ति से मिथ्यादृष्टि भी सम्यक दृष्टि हो जाता है । क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव जिनेन्द्र भक्ति से ही आत्मा में सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से सम्यक्त्व का वेदन करता है। वही सम्यग्दृष्टि जीव जब जिनेन्द्र भक्ति विपुल भावना के विशेष से बढाता है तब क्षायिक सम्यग्दर्शन के अभिमुख हो जाता है। अविरत सम्यग्दृष्टि की कथा तो दूर रहे, संयत भी मोक्ष मार्ग में उपस्थित होने वाले अनेक विघ्नों का निवारण जिनेन्द्र भगवान की भक्ति से ही करता है। आचार्य समन्तभद्र महाराज वाराणसी नगरी में अरिहन्त भगवान की भक्ति के प्रसाद से ही चन्द्रप्रभु भगवान की प्रतिमा को प्रकट किये थे। एक मेंढक भी जिनेन्द्र भक्ति के प्रभाव से स्वर्ग में देव होता है। इस प्रकार यह कथा सर्वजन प्रसिद्ध है। धनंजय नाम का गृहस्थ भी भक्ति के प्रभाव से अपने पुत्र के विष को दूर कर देता है। न केवल जिनेन्द्र भक्ति के प्रभाव से सर्प विष दूर होता है किन्तु मोह विष का भी विनाश होता है। सत्य ही है "जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा में की गई भक्ति संसार रूप को बढ़ाने वाले विष को मन्त्र के समान स्तम्भित कर देती है। यह भी जिनेन्द्र देव की श्रद्धा से हो जाता है इसमें कोई विशेषता नहीं है।''(तीर्थंकर भावणा) जो तीर्थंकर रूप से प्रतिष्ठित होते है वे पूर्व जीवन में अरिहन्त भगवान की भक्ति में अच्छी तरह अनुरागी होते हैं। एक अपराजित नाम के चक्रवर्ती थे, अपने पिता विमलवाहन भगवान को मोक्ष की प्राप्ति हुई है, ऐसा जानकर अपराजित ने निर्वाण भक्ति से तीन दिन तक उपवास किया। पश्चात् धर्मवृद्धि से वह चक्रवर्ती जिनालय में अरिहन्त भगवान की पूजा करके उपवास से बहुत प्रकार का काल व्यतीत करता रहा। कभी अपनी स्त्रियों को भी धर्म के उपदेश से प्रसन्न करते थे। एक बार जिन मन्दिर में युगल चारण ऋद्धिधारी मुनिराज आते हैं। मुनि के द्वारा चक्रवर्ती के पूर्वभव धर्म उपदेश में कहे गये। और अन्त में कहा कि तुम्हारी आयु मात्र एक महीना अवशिष्ट है इसलिए आत्महित करना चाहिए। मुनि के वचनों से चक्रवर्ती हर्षित होकर विचार करते हैं। मेरे तप चरण का काल विनष्ट हो गया। इस प्रकार जानकर के आठ दिन तक उन्होंने जिनेन्द्र भगवान की पूजा की और अन्त में अपने पुत्र को राज्य प्रदान करके प्रायोपगमन संन्यास के द्वारा बावीस दिन तक चतुर्विध आराधना करते हुए स्वर्ग को प्राप्त हुए । अच्युत स्वर्ग में २२ सागर पर्यन्त की आयु को पूर्ण करके आगे पाँचवे भव में वे नेमिनाथ तीर्थंकर हुए। साक्षात् अरिहन्तों के अभाव में भी अरिहन्त देव के बिम्बों की भक्ति करनी चाहिए। क्योंकि उसके द्वारा भी निधत्ति और निकाचित कर्मों के क्षय से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है । देवगति में देव भी सपरिवार यदि जिनेन्द्र भगवान की भक्ति सदा करते हैं तो मनुष्यों को क्यों नहीं करनी चाहिए? अर्थात् अवश्य करनी चाहिए। נ נ נ

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