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धम्मकहा 8891
(९) वैयावृत्यकरण भावना
गुणवान साधुओं पर दुःख आ जाने पर निर्दोष विधि से उनके दुःख को दूर करना वैयावृत्ति है । वैयावृत्ति के १० पात्र हैं। आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ। १. उनमें जो पंचाचार के पालन के लिए स्वयं और दूसरे शिष्यों के विषय में भी कुशल हैं वह आचार्य हैं। २. शिष्यों को जिनागम के पढ़ाने में कुशल उपाध्याय हैं। ३.सर्वतोभद्र आदि घोर तपः कर्म करने में कुशल तपस्वी हैं। ४. सिद्धांत शास्त्रों के अध्ययन में तत्पर रहने वाले मोक्ष मार्गी शैक्ष्य हैं। ५. रोग से पीड़ित साधु ग्लान हैं। ६. वृद्ध मुनियों का समुदाय गण है। ७. आचार्य के शिष्यों की परम्परा कुल है। ८. ऋषि, मुनि, यति और अनगार के भेद से चार प्रकार के श्रमणों का समूह संघ है। ९. चिर काल से दीक्षित साधु है। १०. आचार्य आदि सर्व संघ के प्रिय मनोज्ञ होते हैं।
इनके रोग, क्लेश आदि कष्टों के उत्पन्न हो जाने पर सभी प्रकार से सेवा-शुश्रूषा करना वैयावृत्ति है। मुनि के द्वारा वैयावृत्ति निर्दोष रूप से की जानी चाहिए जिससे की षट्काय के जीवों की विराधना न हो। अशक्य अवस्था में मल, मूत्र आदि देह के विकारों का हटाना और मिष्ट उपदेश के द्वारा मन का समाधान करना आवश्यक उपकरण आदि प्रदान करना, जिससे कि भय उत्पन्न न हो उन सब वस्तुओं का प्रबन्ध करना, चरण आदि का मर्दन करना इत्यादि कार्य वैयावृत्ति हैं । इस प्रकार का तपः कर्म शुभ ध्यान का कारण होने से धर्म बुद्धि के द्वारा ही करना चाहिए। अन्य किसी प्रकार के पद ग्रहण , पूजा, ख्याति, प्रशंसा आदि प्राप्ति के कारण से नहीं करनी चाहिए। वैयावृत्ति के द्वारा साधु अपनी आत्मा में, जुगुप्सा, देह का राग, शंकित वृत्ति, अप्रशस्त रागादि, शत्रुओं का विनाश करके चित्त शुद्धि को कर लेता है। दूसरे के धर्म पालन में मरण समय पर सुख से आराधना करने में सहायक हो जाता है जिससे अन्तरंग तप वैयावृत्ति कहा गया है। वैयावृत्ति से कृष्ण राजा ने तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध किया था। सत्य ही है
"वैयावृत्य तप महान गुण है। जो चित्त की शुद्धि करने वाला है और पूज्य है। कृष्ण राजा ने इसी वैयावृत्ति तप से तीर्थंकर नाम कर्म की शुभ प्रकृति का प्रबन्ध किया था।''(तित्थयर भावणा ११)
प्रासुक द्रव्य से वैयावृत्य करने में भी संयत को भी पाप कर्म का बन्ध नहीं होता है किन्तु कर्म निर्जरा ही होती है। उसके साथसाथ तीर्थंकर सदृश श्रेष्ठ पुण्य कर्म प्रकृति का बन्ध ही होता है और साधर्मी जनों में वात्सल्य भाव की वृद्धि होती है मन में निराकुलता उत्पन्न होती है। यश फैलता है। संघ में मान्यता होती है । इत्यादि अनेक फलों से संयुक्त यह वैयावृत्ति जानना चाहिए। पूज्य पुरुषों में अनुराग के बिना वैयावृत्ति सम्भव नहीं है। इस कारण से पात्र दान और जिनदेव की पूजा भी वैयावृत्ति में ही अन्तर्भावित की गई है। इस प्रकार आचार्य समन्तभद्र महाराज ने उद्घोषित किया है।