Book Title: Dhamma Kaha
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti

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Page 90
________________ धम्मकहा 8889 (८) साधु समाधि भावना मुनिगणों के तप में किसी कारण से विघ्न उत्पन्न हो जाने पर भाण्डागार में लगी हुई अग्नि के प्रशमन की तरह उसका प्रयत्न पूर्वक निवारण करना साधु समाधि है। साधु समाधि भावना नित्य ही साधु के द्वारा की जानी चाहिए । अन्य साधु के लिए विघ्न उपस्थित हो जाने पर साधु समाधि भावना यदि हो तो एकान्त से वह परापेक्षी भावना हो जायेगी। इसलिए अपने मन से अपने मन, वचन, काय योगों को संयत करना और अप्रमत्त होकर के प्रवृत्ति करना निज आश्रित साधु समाधि होती है। सत्य ही है "मन वचन और काय योगों से युक्त हुए साधु के अप्रमत्त रूप जो चर्या है वह साधु समाधि भावना कही गई है।" यह साधु समाधि भावना केवल समाधि काल में ही नहीं है किन्तु सर्वकाल में होती है क्योंकि चित्त में विक्षेप के अभाव का नाम ही समाधि है। जो साधु अपने चित्त में ईर्ष्या, क्रोध, मान, लोभ आदि विकार से निज चित्त को मलिन नहीं करता है वह अन्य साधुओं के चित्त को भी शुद्ध करता है। अपने निकटवासी साधर्मी साधु का जो तिरस्कार नहीं करता है वह सर्वकाल साधु समाधि भावना से युक्त होता है। साधुसमाधि की भावना के निमित्त से अपने परिणामों की विशुद्धि बढ़ती है। अन्य साधु के मन पर भी उसी का प्रभाव पड़ता है। जिसका मन आत्म स्वरूप के ज्ञान से युक्त होता है अन्य किसी का नहीं। एक समय राजा श्रेणिक भगवान महावीर के समवशरण में जाते हैं। रास्ते में उन्होंने एक धर्मरुचि नाम के मुनि को देखा ,जिनके मुख पर विचित्र विकृति दिखाई दे रही थी। उसका कारण उन्होंने गौतम गणधर देव से पूछा-गौतमगणधर ने उसका कारण कहा और अन्त में यह भी कहा कि अन्तर्मुहूर्त तक यदि इस प्रकार के कलुष परिणाम होते रहे तो नरक आयु के बन्ध के योग्य परिणाम हो जायेंगे। इसलिए श्रेणिक! उन मनिराज को सम्बोधित करके उनकी स्थिरता करनी चाहिए। श्रेणिक राजा वहाँ गये उनको सम्बोधन किया। जिससे उनके परिणामों में स्थिरता उत्पन्न हुई। उसी क्षण शुक्ल ध्यान के बल से उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई। धर्म रुचि केवली की देव लोग आकर के पूजा करने लगे। यह प्रभाव साधु समाधि भावना का जानना चाहिए। נ נ נ जहाँ रुचि है वहाँ मार्ग भी होता है

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