Book Title: Dhamma Kaha
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti

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Page 108
________________ धम्मका a 107 (१५) मार्गप्रभावना भावना ज्ञान, तप, जिन पूजा आदि विधि से धर्म का प्रकाशन करना मार्ग प्रभावना है। जिस कारण से पर समय (अन्य मती) का प्रभाव जीव अज्ञान तिमिर का विनाश करके सम्यक् मार्ग की प्राप्ति करते हैं वे सब कारण करने चाहिए। श्रावकों के द्वारा प्रमुख रूप से जिनेन्द्र भगवान की पूजा, कल्याण, व्रत महोत्सव, विधान आदि अनुष्ठान करने चाहिये। श्रमणों के द्वारा प्रमुख रूप से सिद्धान्त, न्याय आदि बहुत प्रकार के ज्ञान के द्वारा और तप के द्वारा मार्ग प्रभावना करनी चाहिए। यदि मार्ग की प्रभावना में समर्थ न हो तो मेरे द्वारा प्रभावना न हो इस प्रकार के भय से सदा निजधर्म का पालन करना चाहिए। जिनेन्द्र भगवान के तीर्थ और जिनवाणी की रक्षा से भी मार्ग की प्रभावना 'होती है। जिन तीर्थों का पुनः उद्धार करना और नव तीर्थों का निर्माण करना भी धर्म संस्कृति की वृद्धि करता है। इसी प्रकार से जिन शास्त्रों का उद्धार करना और नये रूप से शास्त्रों का प्रकाशन करना भी धर्म संस्कृति की वृद्धि करता है। सत्य ही है “जो जीव जिनेन्द्र भगवान के शास्त्रों की नयी रचना करके उनकी रक्षा करता है, उनका पुनः प्रकाशन करता है, वह और अर्थ का अनुसरण करता हुआ मार्ग प्रभावना में तत्पर होता है।" (तीर्थंकर भावना) सूत्र पूर्वाचार्यों के द्वारा सभी शास्त्र प्राकृत भाषा में रचे गये हैं। आचार्यों का एक स्थान से दूसरे स्थान में गमन होने से वह प्राकृत भाषा भी शौरसेन जनपद से दक्षिण देश में स्वयं चली गयी। इसी कारण से प्राकृत भाषा का पठन-पाठन तथा रचना करना भी मार्ग प्रभावना के लिए कारण है क्योंकि मूल भाषा के परिचय के बिना धर्म ग्रंथों की महिमा नहीं हो पाती है। जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे हुए शास्त्रों में व्यवहार और निश्चय दोनों नयों का वर्णन किया गया है। यदि एक नय के अवलम्बन से ही व्याख्यान और तत्त्व का कथन प्रमुखता से किया जाता है तो एकान्त मत का प्रसंग उपस्थित होता है जिससे जिन मार्ग की अप्रभावना होती है। सभी वस्तु अनेकान्त धर्म से युक्त हैं जो स्याद्वाद के द्वारा और सप्तभंग के आधार से ही कथन योग्य होती हैं। इसलिए कहा गया है "यदि जिनेन्द्र भगवान के मत की प्रभावना करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय इन दोनों नयों को नहीं छोड़ना । क्योंकि एक के बिना (व्यवहार के बिना) तीर्थ का विच्छेद हो जाता है। और अन्य (निश्चय के बिना) तत्त्व का विच्छेद हो जाता है। " निश्चयनय का विषय अनुभूति प्रमुख है जो ध्यान काल में निर्ग्रन्थों के द्वारा ही उपलब्ध होता है और उसके अभाव में व्यवहार नय का विषय ही सर्वकाल अध्ययन, चिन्तन, मनन की प्रमुखता से सभी के द्वारा उपलब्ध होता है। इस प्रकार से जानकर के जो प्रवृत्ति करता है वह निर्विवाद रूप से मध्यस्थ होकर के निज धर्म और जिनधर्म के मार्ग को प्राप्त कर लेता है। जो जिनेन्द्र भगवान के मार्ग का श्रद्धान करता है वह कलह से और विवाद से मार्ग को दूषित नहीं करता है। धीर, वीर, सर्वग्रन्थों का ज्ञानी, न्याय विशारद, पन्थ के व्यामोह से रहित ही निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग को प्रकाशित करता है। जिनेन्द्र सेठ, वारिसेण मुनि आदि के समान वह उपगूहन, स्थितिकरण आदि के द्वारा आठ अंगों को धारण करने वाला भी होता है। कभी भी श्रमणों के द्वारा मन्त्र-तन्त्र के कारण से जिनेन्द्र मार्ग की प्रभावना के कारण से उनका अवलम्बन नहीं लेना चाहिए क्योंकि जिनसूत्रों में उनका प्रतिषेध उपलब्ध होता है। ...

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