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धम्मकहा a 105
(१४) आवश्यक अपरिहाणि भावना
छहों आवश्यक क्रियाओं का यथाकाल करना आवश्यक अपरिहाणि भावना कही है वे आवश्यक श्रमणों के और श्रावकों के पृथक् रूप से जिनागम में कहे गये हैं। उनमें सामायिक, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग यह छह आवश्यक श्रमणों के द्वारा करने के योग्य है। तीनों संध्याओं में समता की प्रमुख भावनाओं से निजात्मा की भावना अथवा परमात्मा की भावनाओं में प्रणिधान करना सामायिक है। चौबीस तीर्थंकरों की पृथक् पृथक् स्तुति करना स्तवन है। एक तीर्थंकर की प्रमुखता से स्तुति करना वन्दना है। अतीत काल के दोषों का परिहार करना प्रतिक्रमण है। आगामी काल के दोषों का परिहार करना प्रत्याख्यान है। उच्छ्वास से णमोकार करना अथवा जिनेन्द्र भगवान के गुणों का चिन्तवन करना कायोत्सर्ग है। इसी प्रकार देवपूजा, गुरु-उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये छह आवश्यक श्रावकों को करना चाहिए। उसमें जल, चंदन आदि आठ प्रकार के द्रव्यों से जिनेन्द्र देव की प्रतिदिन प्रातः पूजा करना देव- पूजा है। निर्ग्रन्थ गुरु की प्रत्यक्ष में और परोक्ष में गुणों का उच्चारण करना तथा आठ द्रव्यों से उनकी पूजा करना गुरु-उपासना है। जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे हुए शास्त्रों क पढ़ना और पढ़ाना स्वाध्याय है। जीव दया में मन-वचन-काय की प्रवृत्ति करना संयम है। किसी दिन का लवण का किसी दिन मधुर रस का इत्यादि रूप से त्याग करना और अनेक प्रकार के व्रत आदि सम्बन्धी उपवास आदि करना तप है। चार प्रकार के दान से अर्जित धन का परित्याग करना दान है। छहों आवश्यकों में कमी होना जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा के विरुद्ध है इसलिए श्रावक अथवा श्रवण उनमें विराधना नहीं करता है। जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा के उल्लंघन से सम्यक्त्व का विनाश होता है। लौकिक व्यवहार के कारण से, अध्ययन के लोभ से और निज भक्तों को आश्वासन देने के लोभ से इन आवश्यकों में परिहानि हो जाती है। आवश्यकों के करने पर भी चित्त में व्यासंग होना, संकेत से वार्तालाप करना, अन्यत्र मन का लगना इत्यादि दोष भी परिहानि रूप से ही जानने चाहिए। सत्य ही है
" आवश्यकों से हीन साधु जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का विराधक हो जाता है। वह सम्यक्त्व से रहित हुआ मात्र आत्म प्रशंसा से क्या प्राप्त कर लेगा? " ( )
इस प्रकार की क्रियाएँ व्यवहार गत होते हुए भी निश्चय के लिए कारण भूत हैं क्योंकि वह सम्यक्त्व से सहित होती हैं। व्यवहार रूप आवश्यक का परिपालन करने से साधु निर्विकल्प होता है और वह अप्रमत्त आदि गुणस्थानों में आरोहण करके केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है। नियमसार में कहा भी है
"जितने भी पुराण पुरुष हुए हैं वे सभी इसी प्रकार के आवश्यकों को करके अप्रमत्त आदि स्थानों को प्राप्त करके केवली हुए है।" ( )
प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान आदि क्रियाएँ द्रव्य, भाव के भेद से दो प्रकार की हैं जो अनुष्ठान करने के योग्य हैं। द्रव्य प्रतिक्रमण और द्रव्य प्रत्याख्यान निमित्तभूत हैं और भाव प्रतिक्रमण, भाव प्रत्याख्यान ये नैमित्तिक है। क्योंकि द्रव्य के निमित्त से रागादि विभाव भावों का विनाश देखा जाता है। इस नैमित्तिक भाव प्रतिक्रमण से ही वीतरागता उत्पन्न होती है। इस प्रकार प्रतिदिन किया हुआ अनुष्ठान तीर्थंकरनाम कर्म का बन्ध करता है।