Book Title: Dhamma Kaha
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti

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Page 22
________________ धम्मकहा 8821 बारह वर्ष पर्यंत तक वह पुष्पडाल वारिषेण मुनि के साथ विहार करते हए वर्द्धमान स्वामी के समवशरण में आते हैं. वहाँ तीर्थंकर प्रभु की कीर्ति में देवों के द्वारा गाना गाया जा रहा था। वह गीत वर्द्धमान स्वामी और पृथ्वी के सम्बन्ध में था, उसका भाव इस प्रकार से था-'जब पति परदेश प्रवास को जाता है तब स्त्री मैली-कुचैली खिन्न मन रहती है, पर जब वह घर छोड़कर ही चल देता है तब वह किस प्रकार जीवित रहती है।' पुष्पडाल ने इस गीत को सुनकर के इस गीत के भाव को अपनी वनिता के साथ जोड़ लिया, जिससे वह उसके विषय में उत्कण्ठित हो गया। वारिषेण ने पुष्पडाल की मनःस्थिति को जानकर के पुष्पडाल के स्थितिकरण का चिंतन किया। उपाय सोचकर के वारिषेण अपने घर में उसको ले गये। माता चेलिनी ने विचार किया कि क्या वारिषेण चारित्र से स्खलित हो गया है? परीक्षा करने के लिए माँ ने दो आसन स्थापित किये। एक सराग आसन, एक वीतराग आसन। वारिषेण वीतराग आसन पर बैठकर के कहते हैं-मेरे अंत:पुर को बुलाया जाये। तत्काल चेलिनी ने अनेक प्रकार के आभरणों से सजी हुईं बत्तीस सुंदर स्त्रियों को बुलाकर के समक्ष खडा कर दिया। तदनन्तर वारिषेण ने कहा-हे पुष्पडाल! यह स्त्री समूह और मेरे युवराज पद को तुम ग्रहण कर लो। इस प्रकार सुनकर के पुष्पडाल अत्यंत लज्जित हुआ। बाद में उत्कृष्ट वैराग्य के भाव से परमार्थ तप में वह स्थित हो गया। जो स्वयं निरीह होकर रहता है और मोक्षपथ पर अन्यों को प्रवर्तन कराते हैं ऐसे स्व-पर को तारने वाली नौका गुरु के समान अन्य कोई बंधू नहीं है॥२०॥ पारसमणी तो लोहे को स्पर्श करने पर स्वर्ण बनाती है किन्तु गुरु धीरे-धीरे शिष्यों को अपने समान ही बना लेते हैं॥२१॥ अ.यो.

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