Book Title: Dhamma Kaha
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti

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Page 80
________________ धम्मका aae 79 (४) अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगभावना जो मोक्षमार्ग के योग्य हेतु ..की श्रुतज्ञान के द्वारा नित्य भावना करता है वह अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी होता है। सम्यग्दर्शन के गुण कितने कैसे सम्यक्चारित्र का निर्दोष पालन होवे, परमार्थ की भावना से इन विषयों में बार-बार उपयोग जो देता है वह इन्द्रिय और मन के विषय का त्याग करने के लिए स्वाध्याय करता है। श्रुत के द्वारा ग्रहण किया हुआ अर्थ मन में बार-बार चिन्तन करता है और भावना करता है वह निरन्तर ज्ञानोपयोग में वर्तन करता है। सत्य ही है "जो सम्यग्दृष्टि परमार्थ की भावना के लिए सम्यक्चारित्र का नित्य पालन करता है और रक्षा करता है वह अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग को जानता है।" (तीर्थंकर भावना) जिन वचनों के अनुसार श्रुतज्ञान का उपयोग विषयसुख का परिहार करके जन्म-जरा-मरण से रहित उत्तम स्थान में स्थापित कर देना है। इसलिए निरन्तर भव्यों के द्वारा स्वाध्याय किया जाना चाहिए। संध्याकाल में पूर्वाह्न, मध्याह्न और अपराह्न की और रात्रि की मध्य बेला में दो घड़ी पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । सिद्धान्त ग्रन्थों के पढ़ने में और पढ़ाने में क्षेत्र आदि चार प्रकार की शुद्धि का पालन करना चाहिए। एक शिवनन्दी नाम के मुनि ने गुरुमुख से सुना कि रात्रि में श्रवणनक्षत्र का उदय होने पर स्वाध्याय के योग्य काल होता है। उससे पहले अकाल होता है। इस प्रकार जानते हुए भी वह तीव्र कर्म के उदय से गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करके वह स्वाध्याय करते थे। उसके फल से असमाधिमरण के द्वारा गंगानदी में महामत्स्य हो गये। कभी एक मुनि नदी के तट पर स्थित थे वह उच्च स्वर से स्वाध्याय कर रहे थे। उनके पाठ की ध्वनि को सुनकर के उस मत्स्य को जातिस्मरण हो गया। एक क्षण के बाद अकाल स्वाध्याय का फल जानकर के वह तट के समीप आ गया गुरु के द्वारा वह समझाया गया। तब उस मत्स्य ने सम्यक्त्व और पंचअणुव्रतों को ग्रहण किया। उसके फल से आयु को पूर्ण करके वह स्वर्ग में महर्दिक देव बना । इसलिए आलस्य का परित्याग करके ज्ञान भावना करना ही स्वाध्याय कहा गया है। प्रमाद का परिहार करके जो विकथा में ख्याति पूजा और लाभ में और दुर्ध्यान में चित्त नहीं देता है वह अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी होता है। केवल शास्त्रों के अध्ययन का नाम ही ज्ञानोपयोग नहीं है। शास्त्र के अध्ययन का प्रयोजन जो जानता है वह ज्ञानी होता है। ज्ञान का फल, अज्ञान का तथा मोह, राग और द्वेष का अभाव कहा गया है। मूलाचार ग्रन्थ में कहा भी है "जिससे राग से विरक्ति हो, जिससे कल्याण मार्ग में लग जाये और जिससे मित्रता की प्रभावना हो वह ज्ञान जिनशासन में कहा गया है।" נננ

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