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(५) संवेग भावना
संसार के दुःखों में नित्य भीरुता होना संवेग है। अनादि संसार में प्रत्येक जीव निगोद पर्याय में अनन्त काल तक रह कर के कदाचित् कालादि लब्धि के कारण त्रस पर्याय को प्राप्त होता है। एक इन्द्रिय से त्रसपर्याय की प्राप्ति बालु का समुद्र में | रत्नकणिका की प्राप्ति के समान दुर्लभ है। त्रस पर्यायों में भी पंचेन्द्रिय पर्याय गुणों में कृतज्ञता गुण के समान दुर्लभ है। पंचेन्द्रियों | में भी मनुष्य पर्याय चौराहे पर रखी रत्न राशि के समान दुर्लभ है। मनुष्य पर्याय से भी पुनः मनुष्यपर्याय की प्राप्ति विनष्ट हुए | वृक्ष के परमाणुओं का पुनः उसी परमाणुओं से मिलकर बने वृक्ष के समान दुर्लभ है। इस प्रकार के संसार में जीव जन्म-मरण आदि करता हुआ अनेक प्रकार के दुःखों को भोगता है। सत्य ही है
धम्मकहा 2 81
"गर्भ में वास जन्म संयाग वियोग के दुःख से संतप्त होना रोग और बुढ़ापा होना इनका जो चिन्तन करता है उसके लिए नवीन संवेग की प्राप्ति होती है।" (तीर्थंकर भावना)
दस प्रकार के धर्म ध्यान से संसार और काय के स्वभाव के चिन्तन करने से भी नया-२ संवेग उत्पन्न होता है। भरत राजा के ९२३ पुत्र निगोद पर्याय से निकल कर के मनुष्य पर्याय को प्राप्त करते हैं। वह ऋषभदेव भगवान के समवशरण में अपने पूर्व भवों को जानकर के अत्यन्त उदास भाव से रहते हैं। स्वयं अपने पिता के साथ भी बातचीत नहीं करते हैं। इसका कारण एक दिन भरत राजा ने जिनेन्द्र देव के समीप जाकर पूछा। "पूर्व भवों के स्मरण से वह अत्यंत सविंग्न है ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा । तब वे सभी पुत्र एक साथ एक दिन ऋषभदेव भगवान के समवशरण में सहसा दीक्षित हो जाते हैं।" इस प्रकार की संवेग भावना भी तीर्थंकर नाम कर्म के बन्ध का का कारण है।
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जल में तरंगों के समान निश्चित ही पर्यायें उत्पन्न होती हैं। और विनष्ट होती है। द्रव्य और उनके गुण स्थिर (नित्य) होते हैं, यह विरले ही जानते हैं ॥ ११ ॥ अ.यो.