Book Title: Dhamma Kaha
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti

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Page 78
________________ धम्मकहा 8877 (३) शील व्रतों में अनतिचार भावना अहिंसा आदि व्रत हैं। उनका परिपालन करने के लिए क्रोध आदि दुर्भावों से रहित होना शील है। अथवा अहिंसा आदि व्रतों की रक्षा करने के लिए अन्य व्रतों का पालन करना भी शील है। चारित्र के भेद शील व्रत होते हैं। उसमें सकल चरित्र तो पंचमहाव्रत रूप है। उसका परिपालन करने वाले मुनि महाराज के लिए पाँच समितियां और तीन गुप्तियाँ शील हैं। अथवा अहिंसा आदि व्रत का पालन करने वाले मुनि के लिए सत्य आदि व्रत का पालन करना भी शील है। अथवा २८ मूलगुण व्रत हैं और उनका पालन करने के लिए १२ प्रकार के तप एवं २२ प्रकार को परीषहों की जय होने रूप उत्तरगुण शीलपने से कहा जाता है। इसी प्रकार श्रावकों के लिए पाँच अहिंसा आदि अणुव्रत है। तीन गणव्रत है और चार शिक्षा व्रत हैं। इनके अतिचार जैसे आगम में कहे गये है उसी तरह से जानकर के अनतिचार रूप से प्रवर्तन करना तीर्थंकर कर्म प्रकृति का बन्ध करता है। शील और व्रत जब सम्यक्त्व के साथ रहते है तभी वह सम्यक्चारित्र में अन्तर्भूत होते हैं। और तभी ही तीर्थंकर नाम कर्म के बन्ध के कारण होते हैं। शील व्रतों का पालन करने वाली आत्मा का मन शुद्ध होता है क्योंकि वह परमार्थ के कार्य में संलग्न होता है। जब कभी भी विषय के व्यामोह से मन शुद्धि में हानि होती है तो वह प्रथम दोष अतिक्रम उत्पन्न होता है। उस अतिक्रम के कारण से शीलवतों का उल्लंघन हो जाने से मन का प्रवर्तन होना दूसरा व्यतिक्रम नाम का दोष है । पुनः इन्द्रिय विषयों में प्रवर्तन होना तीसरा अतिचार नाम का दोष है । पुनः अति आसक्ति के कारण से व्रतशीलों का विनाश हो जाना चौथा अनाचार दोष है। इस कारण से साधु या श्रावक निर्विकल्प होने के लिए व्रतों को ग्रहण करता है। अपने आवश्यक आदि कार्यों में उसका मन कभी भी क्षोभ को प्राप्त नहीं होता है। रागादि कारणों से मन में क्षोभ होता है क्योंकि ममत्व आदि परिणामों का सद्भाव होता है। इसलिए जो अवक्षित मन वाला ही निरतिचार व्रत का पालन करने वाला है। सत्य ही है-"जो निर्विकल्प साधु बाहर के कार्यों से क्षोभित नहीं होता है और समता में लीन रहते हुए सदैव प्रसन्न रहता है वही शील और व्रत में अनतिचार स्वभाव वाला होता है अर्थात् वही शील और व्रत में अनतिचार धारण करता है।''(तित्थयर भावणा २३) क्रोधादि कारण से व्रतों में दोष लगना शील का भंग कहा गया है। इसी कारण से तिर्यच आदि कुशील गति में जीव जन्म लेता है। एक गुणनिधि नाम के मुनिराज पर्वत पर चातुर्मास का वर्षायोग धारण किये थे। वह धीर ,वीर और चारण ऋद्धि के धारक थे।उनकी प्रशंसा सर्वत्र फैल रही थी। योग समाप्ति होने पर वह आकाश मार्ग से अन्यत्र चले गये। उसी समय पर मृदुमति नाम के मुनि आहार करने के लिए उस नगर में आये नागरिक जनों ने विचार किया वही मुनि यहाँ आ रहे हैं। इसलिए बहुत प्रकार से अनेक प्रकार के द्रव्यों से तथा स्तुति, कीर्तिगान के द्वारा मुनि की प्रशंसा की। उस प्रशंसा को सुनकर भी मुनि ने मायाचार से कुछ भी सत्य नहीं कहा । उस कारण से वह मुनि मरण को प्राप्त होकर स्वर्ग के फल को भोगकर पुनः आकर के त्रिलोक मण्डन नाम का रावण का हाथी हुआ। इसलिए हे भव्यजनो! क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों के द्वारा व्रतों में दूषण नहीं लगाना चाहिए।

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