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धम्मका 0 75
इस प्रकार की विनय एक रात्रि भी बड़े साधु में, दीक्षा गुरु में, विद्या गुरु में तप और श्रुत ज्ञान से अधिक साधु में करनी चाहिए। इसी प्रकार तप और श्रुतज्ञान से हीन भी व्यक्ति में यथायोग्य धर्म आदि की देशना के द्वारा और स्नेह के द्वारा विनय करना चाहिए । विनय रहित का समस्त तप कर्म और शास्त्र का पढ़ना निरर्थक होता है। कहा भी है- “विनय से रहित व्यक्ति की सम्पूर्ण शिक्षा निरर्थक है, शिक्षा का फल विनय है, विनय का फल समस्त कल्याणों की प्राप्ति होना है । विनय मोक्ष का द्वार है, विनय से ही संयम, तप और ज्ञान है। विनय के द्वारा ही आचार्य और सर्व संघ की आराधना की जाती है । " (मूला. २११, २१२) जिनके पास रत्नत्रय और धर्म की भावना होती है उनकी विनय सम्यग्दृष्टि जीव नियम से करता है क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव में आठ प्रकार के मदों के अभाव से विनय सहज ही उत्पन्न होती है।
वह सम्यग्दृष्टि जीव किसी प्रलोभन से या चमत्कार आदि को देखने के बिना ही विनय करता है। विनय आत्मा का उत्थान करने वाला गुण है। वि यानि विशेष रूप से, नय अर्थात ले जाने वाला। जो मोक्षमार्ग पर विशेष रूप से आगे ले जाता है उसका नाम विनय है । अथवा विशेष, नय नीति, ही विनय है। विनय ही लौकिक और अलौकिक सभी कार्यों की सिद्धी
करने वाला गुण है। सत्य ही कहा है
"जिनके पास रत्नत्रय है उनकी भावना धर्म में बनी रहती है। ओर जो लोक में निरपेक्ष होते है, उनके चरणों में हमेशा दृष्टि लगी रहती है।" (तित्थयर भावणा)
गमनपथ पर मिलने वाले जिनालय, साधु और जिनतीर्थों की जो वंदना करके आगे बढ़ता है वह पुरुष विनय से युक्त होता है ॥ १६ ॥
जिसके हृदय में विनय है, वह समस्तजनों के हृदय को वश कर लेता है।
उसके हाथ में चिंतामणि है ।
उस विनयवान जीव के सेवक देव भी होते हैं ॥ १७ ॥ अ.यो.