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धम्मकहा 0829
सत्य कहो मैं किसका पुत्र हूँ? तदनन्तर ही मैं भोजन आदि में प्रवृत्ति करूँगा। तब दिवाकर देव ने जैसा घटित हुआ था वैसा कह दिया। उसे सुनकर के अपने भाईयों के साथ में वह अपने पिता के दर्शन करने के लिए मथुरा नगरी के दक्षिण गुफा में चले जाते हैं। वहाँ दिवाकर देव वज्रकुमार के पिता सोमदत्त को सब कुछ कह देते हैं। संसार की इस प्रकार की असारता को जानकर वज्रकुमार मुनि हो जाते हैं।
इधर एक अन्य घटना घटित होती है। मथुरा में पूतिगंध राजा की उर्विला रानी सम्यग्दृष्टि थी. वह जिनधर्म की प्रभावना में अनुरक्त थी। वह प्रतिवर्ष अष्टाह्निका पर्व में तीन बार जिनेन्द्रदेव की रथयात्रा के द्वारा प्रभावना करवाती थी। उस नगर में सागरदत्त श्रेष्ठी समुद्रदत्त वनिता के साथ में निवास करते थे। उनकी एक दरिद्रा नाम की पुत्री थी। काल की विडम्बना से सागरदत्त के मर जाने पर वह अनाथ हो गई और वह जैसे-तैसे अपना जीवन चलाती थी। एक दिन वह किसी दुसरे के घर में फैंके हुए भात को खा रही थी। उसी समय पर चर्या के लिए आये हुए दो मुनिराज उसको देखते हैं। लघु मुनि ने ज्येष्ठ मुनि को पूछा-अहो! महाकष्ट से इसका जीवन चल रहा है। इस प्रकार सुनकर के ज्येष्ठ मुनिराज ने कहा-यह इस नगर के राजा की पट्टरानी होगी। एक बौद्ध साधु ने इस प्रकार से सुनकर के विचार किया कि-मुनि के वचन अन्यथा नहीं होते हैं इसलिए वह उसे अपने स्थान पर ले गया और उसका समीचीन रूप से पालन किया।
वह एक बार यौवन दशा में चैत्र मास में झूले पर खेल रही थी। दूर से ही राजा ने उसको देखा और देखकर के मोह से खिन्न हो गया। उसके मंत्रियों के द्वारा उस कन्या की याचना की गई। बौद्ध भिक्षु ने कहा-यदि राजा मेरे धर्म को अंगीकार करता है तभी कन्या को दूंगा अन्यथा नहीं। राजा ने सब कुछ स्वीकार कर लिया। उस कन्या के साथ विवाह करके पट्टरानी के पद पर उसे स्थापित कर दिया।
फाल्गुन मास की अष्टाह्रिका में नंदीश्वरद्वीप के पर्व के दिनों में उर्विला रथयात्रा के लिए सभी प्रकार से तैयारियाँ करती है। उसकी तैयारी को देखकर के बुद्धभक्त पट्टरानी ने कहा-राजन! मेरे बुद्ध भगवान का रथ पहले नगर में भ्रमण करना चाहिए। राजा ने कहा-इसी प्रकार से ही होगा। इधर उर्विला कहती है-यदि मेरा रथ पहले भ्रमण करेगा तभी मैं भोजन में प्रवृत्ति करूँगी अन्यथा नहीं। इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके वह उर्विला रानी क्षत्रिय गुफा में विराजमान सोमदत्त आचार्य के पास आई। उसी समय पर वज्रकुमार मुनि के समक्ष वंदना भक्ति करने के लिए दिवाकर देव आदि विद्याधर आये हुए थे। उर्विला की प्रार्थना सुनकर वज्रकुमार मुनि ने विद्याधरों को कहा-तुम्हारे द्वारा उर्विला की रथयात्रा को पहले कराना चाहिए। तब विद्याधरों के द्वारा अन्य रथ को तोड़कर के जिनेन्द्रदेव के रथ की रथयात्रा पहले कराई गई। उस अतिशय को देखकर के बुद्धरानी-राजा तथा अन्य लोग भी जिनेन्द्र धर्म के भक्त हो गये।