Book Title: Dhamma Kaha
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti

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Page 69
________________ धम्मकहा 2068 सोलहकारण भावना जीव की पुरुषार्थशीलता का द्योतक हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों ही पुरुषार्थ भावना पर आधारित हैं। किसी भी पुरुषार्थ को करने से पहले जो चिन्तन, मनन और तीव्र इच्छा उत्पन्न होती है वही भावना है। अरिहन्त तीर्थंकरों के द्वारा आगे बढ़ने वाला 'जिनशासन' उस जीव की पूर्व जन्म में भाई हुई तीव्र भावनाओं का फल है। विशिष्ट पुण्य और पाप प्रकृति का बन्ध जीव की विशिष्ट भावनाओं से होता है सामान्य भावों से नहीं। भावना शुभअशुभ दोनों प्रकार की होती है। अत्यन्त शुभ भावना का फल तीर्थकर प्रकृति का बंध कहा है। सिद्धान्त की दृष्टि से इस तीर्थंकर प्रकृति को बांधने वाला जीव असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती उपशामक और क्षपक जीव तक होते हैं। अपूर्वकरण गुणस्थान के संख्यात बहुभाग के व्यतीत हो जाने पर तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध व्युच्छिन्न हो जाता है। इस तीर्थंकर कर्म प्रकृति के बन्ध के लिए बाह्य सहयोगी कारण केवली या श्रुतकेवली का पादमूल है। इसके अतिरिक्त अन्तरङ्ग कारण सोलहकारण भावनाएँ हैं। षट्खण्डागम सत्र में कहा है कि'तत्थ इमेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयर णामगोदकम्म।' -ध.पु.८ सूत्र ४० अर्थात् वहाँ इन सोलह कारणों से जीव तीर्थंकर नाम गोत्र का बंध करते हैं।

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