Book Title: Dhamma Kaha
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti

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Page 28
________________ धम्मकहा aea 27 (८) वज्रकुमार मुनिकी कथा हस्तिनागपुर में बल नाम के एक राजा थे। उनके पुरोहित का नाम गरुड़ था। वह सोमदत्त पुत्र के साथ रहते थे । सोमदत्त समस्त शास्त्रों को पढ़कर के अहिछत्रपुर में अपने मामा सुभूति के समक्ष जाकर कहता है-मामजी ! मुझे दुर्मुख राजा के दर्शन करा दो। गर्व से भरे सुभूति ने उसे राजा के दर्शन नहीं कराये। तब हठ से वह स्वयं राजसभा में चला गया। वहाँ उसने राजा के दर्शन करके अपनी समस्त शास्त्रों में निपुणता प्रकट कर दी जिससे राजा ने प्रसन्न होकर उसे मंत्री पद पर स्थापित कर दिया। सुभूति मामा ने उसे मंत्री पद पर देखकर अपनी यज्ञदत्ता पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया। एक समय में वह यज्ञदत्त जब गर्भिणी हुई तब उसे वर्षाकाल में आम्रफल खाने का दोहला हुआ। उद्यानों में आम्रफल की खोज करके सोमदत्त ने देखा जिस आम्रवृक्ष के नीचे सुमित्र आचार्य योग से विराजमान हैं वह वृक्ष समस्त फलों से भरा हुआ है। उसने उस वृक्ष से फलों को लेकर किसी आदमी के साथ घर पहुँचा दिया और स्वयं धर्म श्रवण करके संसार से विरक्त हो गया। तपश्चरण को धारण करके जिनागम के अध्ययन करने में लीन हो गया। जब वह मुनि परिपक्व हुये तब नाभिगिरि पर आतापन योग से स्थित हो गये। इधर यज्ञदत्ता ने पुत्र को जन्म दिया। पति मुनि हो गया है इस प्रकार के समाचार को सुनकर के वह अपने भाई के समीप चली गई। पुत्र की शुद्धि को जानकर के वह अपने भ्राताओं के साथ नाभिगिरि पर पहुँचती है, वहाँ पर आतापन योग में स्थित सोमदत्त मुनि को देखकर के अतिक्रोध से उसने वह बालक उन मुनि के चरणों में रखकर और अनेक दुर्वचन कहकर अपने घर चली गई। उस समय पर अपने छोटे भ्राता के द्वारा राज्य से निकाला गया दिवाकर देव नाम का विद्याधर अपनी स्त्री के साथ मुनि वंदना करने के लिए आया था। एकाकी शिशु को वहाँ देखकर के उसने ग्रहण कर लिया और उसे अपनी स्त्री को देकर उसका नाम वज्रकुमार रखकर चला गया। वह वज्रकुमार कनकनगर में विमलवाहन मामा के समीप सभी विद्याओं को पढ़कर के धीरेधीरे तरुण हो गया। इधर गरुणवेग और अंगवती की पुत्री पवनवेगा हेमन्तपर्वत पर प्रज्ञप्ति नाम की विद्या सिद्ध कर रही थी उस समय पर वायु के वेग से तीक्ष्ण काँटा आकर के उसकी आँख में विध गया। उस पीड़ा के कारण उसके चित्त में चंचलता हुई जिसके कारण विद्या सिद्धि में विघ्न उत्पन्न हुआ। वज्रकुमार ने उस कष्ट को देखकर उसके काँटे की पीड़ा दूर कर दी जिससे उसके चित्त की स्थिरता हो गई और उसे विद्या सिद्धि बहुत शीघ्र हो गई। तुम्हारे प्रसाद से मुझे ये विद्या सिद्ध हुई है इसलिए तुम मेरे भर्त्ता हो, इस प्रकार कहकर के उसने वज्रकुमार के साथ विवाह किया। एक दिन वज्रकुमार दिवाकर विद्याधर को कहते हैं कि - हे तात!

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