Book Title: Dhamma Kaha
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti

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Page 58
________________ धम्मकहा 8857 वाराणसी भेज दिया। उग्रसेन राजा ने घोषणा करवा दी कि राजसभा में स्थित मेरे लिए जो पुरस्कार आएगा उसका आधा भाग मेघपिंगल को और आधा भाग वृषभसेना के लिए समर्पित करूँगा। इस प्रकार के नियम से एक दिन रत्नकंबल भेंट में आया। राजा ने उस नाम से चिह्नित कंबल दोनों का दे दिया। एक दिन मेघपिंगल की रानी विजया मेघपिंगल वाला कंबल ओढकर किसी कारण से किसी कार्य से रूपवती के समीप गई। वहाँ उसका कंबल बदल गया। अर्थात् वृषभसेना के नाम से अंकित कंबल को वह ले आई(मेघपिंगल के नाम से अंकित कंबल को वहाँ छोड़ आई)। एक दिन वृषभसेना के नाम वाले कंबल को ओढ़कर मेघपिंगल उग्रसेन की सभा में गया। राजा उग्रसेन उस कंबल को देखकर क्रोध से लाल नेत्रों वाला हो गया। यह मेरे ऊपर कुपित हो ऐसा जानकर वह भय से दूर चला गया। क्रोध से युक्त राजा उग्रसेन ने वृषभसेना को समुद्रजल में फिकवा दिया। वृषभसेना ने प्रतिज्ञा की-यदि इस उपसर्ग से निकल गई तो मैं तप करूँगी। व्रत के महात्म्य से उसकी रक्षा की और सिंहासन आदि प्रदान करके उसकी पूजा की। इस प्रकार सुनकर राजा भी उसे लेने के लिए गया। वापस लौटते समय वह राजा गुणधर नाम के अवधिज्ञानी मुनि को देखता है। वृषभसेना उन मुनिराज को प्रणाम करके पूर्वभवों को पूछती है। भगवान् मुनि कहते हैं कि-पूर्व भव में इसी नगर में तुम नागधर नाम की ब्राह्मण पुत्री थी, वहाँ राजा के देव मंदिर में झाड़ने का काम करती थी। एक दिन अपराह्नकाल में कोट के भीतर वायु रहित गगन स्थान में मुनिदत्त नाम के मुनि कायोत्सर्ग से विराजमान थे। तुमने क्रोध से कहा कि कटक नगर से राजा यहाँ आयेंगे अतः तुम यहाँ से उठो, मुझे झाडू लगाना है। तब मुनि मौन से कायोत्सर्ग से ही स्थित रहे। तदनन्तर तुमने कचड़े से उनको ढककर उन्हें झाडू मार दी। प्रातःकाल जब राजा आया और क्रीड़ा करता हुआ उस स्थान पर जाता है तब उश्वांस से कंपायमान होता हुआ उस स्थान को देखता है। मुनि को बाहर निकालता है। तदनन्तर आत्मनिंदा करके तुमने धर्म में श्रद्धा करली। मुनि की पीड़ा को शांत करने के लिए महा आदर से विशिष्ट औषधि के द्वारा उनकी सेवा भी की। तदनन्तर निदान से मरकर यहाँ वृषभसेना नाम की पुत्री हुई हो। औषधि दान के प्रभाव से सर्वौषधिऋद्धि के फल को प्राप्त हुई हो। मुनिराज को कचड़े से ढकने के कारण कलंकित हुई हो। इस प्रकार से मुनिराज से पूर्वभव को सुनकर मुनि के समीप आर्यिका हो जाती है। गुरु की दृष्टि में ही कल्याण है, गुरु आशीष की छाया कल्पवृक्ष के समान है। गुरु के वचन भ्रम को दूर करने वाले हैं। गुरु ने मुझे पूछा है, इसमें स्वर्गसुख है॥१८॥ अ.यो.

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