Book Title: Dhamma Kaha
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 44
________________ धम्मकहा 8843 घर में गई तो भी ब्राह्मणी ने रत्नों को नहीं दिया। पुनः रानी ने पुरोहित के कटारी सहित यज्ञोपवीत को जीत लिया। निपुणमती दासी उसको लेकर के पुनः उसके घर में जाकर के उसी प्रकार से कहती है। उसे देखकर के विश्वास को प्राप्त हुई ब्राह्मणी चिंतन करती है- यदि 'मैं नहीं दूंगी तो स्वामी नाराज हो जाऐंगे' इसलिए भय के कारण से उसने वे रत्न उसे दे दिए। निपुणमती उन रत्नों को रानी के हाथ में समर्पित कर देती है। रानी राजा को दिखाती है। राजा उन रत्नों को बहुत से अन्य रत्नों में मिलाकर के उस पागल को कहता है- अपने रत्न पहचानकर के ग्रहण कर लो। वह पागल भी अपने रत्नों को ही पहचानकर के ले लेता है। तब उन राजा रानी ने समझ लिया कि ये पागल नहीं है किन्तु वणिक पुत्र है, ऐसा स्वीकार किया। तदनन्तर राजा ने सत्यघोष को पूछा- क्या तुमने यह कार्य किया है? सत्यघोष कहता है- हे राजन्! क्या यह कार्य हमारे लिए उपयुक्त है? अयुक्त कार्य को हम कैसे कर सकते हैं? उसके असत्य को जानकर के कुपित हुए राजा ने उसके लिए तीन दण्ड निर्धारित किए। पहला दण्ड यह कि- वह तीन थाली प्रमाण गोबर खाये, दूसरा- मल्लों के मुक्कों को सहन करे और तीसरा-समस्त धन मुझे प्रदान करे। उस सत्यघोष ने विचार करके पहले गोबर खाना प्रारंभ किया, असमर्थ हो जाने पर उसने मल्लों के मुक्कों को सहन किया। उसमें भी असमर्थ हो जाने उसने सारा धन दे दिया। इस प्रकार से तीनों प्रकार के दण्डों को भोगकर के वह मरण को प्राप्त हुआ। तीव्र लोभ के कारण मरण करके वह राजा के भण्डागार (खजाने) में अगंधन जाति का सर्प हआ और वहाँ से भी मरण करके दीर्घ संसारी हुआ। נ נ נ जो सल्य हृदय में विद्यमान रहती है वह नियम से व्यक्ति के मुख पर दिखाई देती है। सच है- जल के भीतर कभी भी तैल नहीं ठहरता है किन्तु जल के ऊपर तैरता है, यह जानना चाहिए॥१०॥ अ.यो.

Loading...

Page Navigation
1 ... 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122