Book Title: Dhamma Kaha
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti

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Page 42
________________ धम्मकहा 8841 (१४) सत्यघोष की कथा जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में सिंहपुर नगर में राजा सिंहसेन रामदत्ता रानी के साथ रहते थे। उनके श्रीभूति नाम से एक पुरोहित था। वह पुरोहित अपने यज्ञोपवीत (जनेऊ) में छोटी कटारी बाँधकर के घूमा करता था और कहता था कि यदि मैं असत्य बोलूँ तो इससे मैं अपनी जिह्वा को छेद लूँगा। उसके कपट से उसका दूसरा नाम सत्यघोष प्रचलित हो गया। नगर के लोग विश्वास के साथ उसके समीप धन को रख देते थे। वह उस रखे हुए धन का कुछ भाग ग्रहण करके शेषभाग को प्रदान कर देता था। कोई भी राजा को सूचना देता तो राजा भी उसके विषय की चिंता नहीं करता था। एक समय की बात है कि पद्मखण्ड नगर में एक समुद्रदत्त नाम का सेठ आया। वह सत्यघोष के पास पाँच बहुमूल्य रत्न रख कर के धन का अर्जन करने के लिए अन्य नगर में चला गया। धन अर्जन करके वापस लौटते समय उसका जलयान छूट गया। जिस किसी भी प्रकार से समुद्र को पार करके वह सिंहपुर में सत्यघोष के समीप आया। 'रंक होकर के नगर में प्रवेश किया' इस तरह विचार करके सत्यघोष समीप में स्थित लोगों को कहता है कि यह आने वाला पुरुष जहाज के छूट जाने से विक्षिप्त हो गया है। इसलिए यहाँ आकर के मणि को माँगेगा। सेठ पुरोहित के समीप प्रणाम करके कहता है- हे सत्यघोष पुरोहित! मैंने जो रत्न तुम्हारे समीप रखे थे, वे कृपा करके मुझे प्रदान कर दो। जलयान के नष्ट हो जाने से मेरे ऊपर संकट आ गया है। उसके वचनों को सुनकर सत्यघोष अपने पास में बैठे हुए लोगों में अति विश्वास से कहता है- देखो मैंने जो पहले कहा था वह सत्य हुआ। वह विक्षिप्त हो गया है। इसलिए सब मिलकर के उसको उस स्थान से बाहर निकाल देते हैं। सभी पागल-पागल इस प्रकार से कहना प्रारंभ कर देते हैं। सत्यघोष ने मेरे पाँच रत्न रख लिए है इस प्रकार वह रोता हुआ नगर में घूमने लगा। राज भवन के समीप एक वृक्ष के ऊपर चढ़कर प्रतिदिन रात्रि में रोता हुआ वह हमेशा उसी प्रकार से कहता रहता था। उस सेठ के छः महीने व्यतीत हो गए। एक दिन उसके रोने को सुनकर के रामदत्ता रानी राजा सिंहसेन को कहती है कि हे देव! यह पुरुष पागल नहीं है क्योंकि सदैव एक जैसा बोलता रहता है तो राजा ने कहा- क्या सत्यघोष चोर है? रानी कहती है-संभावना है। राजा कहता है- तो तुम उसकी परीक्षा करो। आज्ञा प्राप्त करके रानी एक दिन सत्यघोष को अपने समीप में बैठाकर के प्रिय वचनों से कहती है- आज द्यूत क्रीड़ा करनी चाहिए। इस प्रकार कहकर के राजा की स्वीकृति को रानी ने प्राप्त कर लिया। तदनन्तर द्यूत क्रीड़ा प्रारंभ हुई। रामदत्ता निपुणमती दासी को कहती है कि तुम सत्यघोष के घर जाकर ब्राह्मणी को सूचना दो कि पुरोहित रानी के समीप जुआ खेल रहा है। उन्होंने इसलिए उस पागल के रत्नों को माँगने के लिए मुझे भेजा है। दासी वहाँ जाकर रत्नों को माँगती है किंतु ब्राह्मणी ने वे रन नहीं दिए क्योंकि पहले ही सत्यघोष ने कहा था कि किसी को भी वह रल प्रदान नहीं करना। दासी रानी के कान में आकर कहती है वह ब्राह्मणी रन नहीं देती है। रानी ने पुरोहित की मुद्रा को जीत लिया उसको प्रदान करके दासी को रानी ने कहा- पुनः तुम्हें जाना चाहिए और उसे विश्वास दिलाने के लिए इस अंगुठी को उसे दिखा देना चाहिए। दासी उसके

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