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धम्मकहा 2017
(५) जिनेन्द्रभक्त सेठकी कथा सुराष्ट्र देश के पाटलिपुत्र नगर में राजा यशोधर रहते थे। उनकी रानी का सुसीमा था। सुवीर नाम का पुत्र था। पुत्र सप्तव्यसनों में संलग्न था। वह चोर पुरुषों के द्वारा सेवित था और प्रसन्न था। कभी उसने सुना-पूर्वगौड़ देश के ताम्रलिप्त नगरी में जिनेन्द्रभक्त सेठ निवास करते हैं। उनके सप्तखण्ड प्रासाद के ऊपर अनेक कोट्टपालों से रक्षित श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र की प्रतिमा है। उसके ऊपर लगे छत्रत्रय में अनर्घ वैयमणि विशेष लगा है। सुवीर ने चोर पुरुषों से पूछा-क्या कोई भी उस मणि को लाने | में समर्थ है? सूर्य नाम के चोर ने उच्च स्वर से कहा-इसमें क्या विशेषता है? मैं तो इन्द्र के मुकुट पर लगी हुई मणि को भी ग्रहण करके ला सकता हूँ। इस प्रकार कहकर के वह वहाँ से चला गया। कपट से क्षुल्लक वेश को धारण करके कायक्लेश से सर्वत्र ग्राम और नगरों में क्षोभ करता हुआ ताम्रलिप्त नगरी में पहुँचा। अतिप्रशंसा के द्वारा क्षोभ को प्राप्त होने से श्रेष्ठी के द्वारा जब उसके विषय में सुना गया तो वे भी वहाँ गये दर्शन-वंदना करके वार्तालाप करके श्रेष्ठी क्षुल्लकजी को अपने गृह में ले आये। पार्श्वनाथदेव का दर्शन कराया, वहीं पर रहने के लिए प्रार्थना की, नहीं चाहते हुए भी माया से श्रेष्ठी ने मणि की रक्षा करने के लिए श्रेष्ठी ने उनको वहीं पर रख दिया।
एक दिन श्रेष्ठी क्षुल्लकजी को निवेदन करके समुद्र की यात्रा के लिए प्रस्थान किये। नगर के बाहर जाकर के वह स्थित हो गये। मध्यरात्रि में उस मणि को लेकर चोर क्षुल्लक चला जाता है। मणि के प्रकाश से मार्ग में जाते हुए वह कोट्टपालों के द्वार वह देखा गया। वे कोट्टपाल उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे लग जाते हैं। मेरे लिए अब कोई भी शरण नहीं है ऐसा विचार करके वह श्रेष्ठी की शरण को प्राप्त कर लेता है। मेरी रक्षा करो! मेरी रक्षा करो! इस प्रकार से वहाँ पहुँचकर वह कहता है। कोट्टपालों के शब्दों को सुनकर वह श्रेष्ठी पूर्वापर विचार करते हुये वह बोलते हैं-मेरे कहने से ही यह रत्न वह यहाँ लाया है। तुम लोगों ने महान अपराध किया है जो इस प्रकार के तपस्वी को 'चोर' ऐसा घोषित किया। श्रेष्ठी के वचनों को प्रमाण करके वे कोट्टपाल वहाँ से वापिस लौट जाते हैं। सेठ ने रात्रि में चोर को अन्यत्र स्थान पर भेज दिया। इस प्रकार से सम्यग्दृष्टि जीवों के द्वारा बाल और असमर्थ लोगों के द्वारा मोक्षमार्ग में दोषों का निवारण करना चाहिए।
जो पुरुष जिसकी इच्छा करता है वह उसके विषय में रात-दिन चिंता करता है। निद्रा, भोजन और अन्य कार्य उस अभिलाषी को रुचते नहीं हैं॥१८॥ अ.यो.