Book Title: Dhamma Kaha
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti

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Page 10
________________ धम्मकहा29 (१) अञ्जन चोर की कथा मगधदेश के राजगृह नगर में जिनदत्त श्रेष्ठी थे। वह जिनेन्द्रभक्त थे, स्वभाव से ही धर्मात्मा थे और पूजा, दान, शील, उपवास धर्म के साथ सदा रहते थे। एक बार वह उपवास का नियम ग्रहण करके कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के दिन श्मसान में कयोत्सर्ग से स्थित थे। उसी समय पर अमितप्रभ और विद्युतप्रभ नाम के दो देव एक-दूसरे के धर्म की परीक्षा करने के लिए विहार करते हुए वहाँ आ पहुँचे। उन श्रेष्ठी को देखकर के अमितप्रभ देव विद्युतप्रभ देव से कहते हैं हमारे मुनियों की बात तो दूर रहे इस ग्रहस्थ को ही तुम ध्यान से विचलित करो तदनन्तर विद्युतप्रभ देव ने जिनदत्त के ऊपर अनेक प्रकार के उपसर्ग किए। तो भी वह जिनदत्त ध्यान से विचलित नहीं हुए। प्रातः अपनी माया क्रिया को रोककर के विद्युतप्रभ देव ने जिनदत्त की प्रशंसा की, जिससे जिनदत्त को आकाशगामी विद्या प्रदान की और विद्युतप्रभ देव के कहा-तुम्हारे लिए यह विद्या सिद्ध है किंतु अन्य के लिए तो पंचनमस्कार मंत्र के साथ में आराधना की विधि करके ही सिद्ध होगी। श्रेष्ठी प्रतिदिन सिद्ध की हुई विद्या के बल से अकृत्रिम जिनालयों की वंदना करने के लिए सुमेरुपर्वत पर चले जाते हैं। जिनदत्त के गृह में एक सोमदत्त नाम का बटुक ब्रह्मचारी रहता था। वह जिनदत्त को पतिदिन को प्रतिदिन पूजन सामग्री समर्पित करता था। एक दिन सोमदत्त सेठजी से पूछता है-प्रातः प्रतिदिन आप कहाँ जाते हैं? सेठजी ने कहा-अकृत्रिम जिनालयों की वंदना करन के लिए, पूजा करने के लिए जाता हूँ। सभी घटित घटना को भी उन्होंने कह दिया। सोमदत्त कहता है-मेरे लिए भी यह विद्या प्रदान करो जिससे कि आपके साथ हम भी चलेंगे और पूजा भक्ति करेंगे। जिनदत्त ने विद्या सिद्ध करने की विधि सोमदत्त को बता दी। उस विधि के अनुसार सोमदत्त कृष्णपक्ष की चतुर्दशी की रात्रि में श्मसान में वटवृक्ष के नीचे पूर्व दिशा की शाखा पर एक सौ आठ रस्सियों का एक मञ्चिका सीका बाँधता है। उसके नीचे सभी प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्रों को ऊपर मुख करके भूमि पर निक्षिप्त करता है (भूमि में गाढ़ता है)। पूजन सामग्री को ग्रहण करके सीके की बीच में वह वहाँ प्रविष्ट हो जाता है। दो उपवास के नियम के साथ पंचनमस्कार मंत्र का उच्चारण करके एक-एक रस्सी को काटने में लग जाता है। नीचे शस्त्र समूह को देखकर के डरता हुआ विचार करता है-यदि श्रेष्ठी के वचन असत्य हुए तो मरण हो जाएगा जिससे शंकित चित्त होने से वह पुनः-पुनः उस वृक्ष पर आरोहण और अवरोहण करने लग जाता है। उसी समय पर राजगृह नगर में एक अंजनसुन्दरी नाम की वेश्या रहती थी। उसने कनकप्रभ राजा की कनकारानी का हार देखा था। रात्रि में जब अंजन चोर वेश्या के गृह में आया तब उस वेश्या ने कहा यदि कनकारानी का हार लाकर के दोगे तो मैं तुम्हारी हूँ, तुम मेरे स्वामी हो, अन्यथा नहीं। चोर उसको आश्वासन देकर के चला गया। रात्रि में हार को चुराकर के दौड़ता हुआ हार के प्रकाश से अंगरक्षकों के द्वारा देख लिया गया। उस चोर को पकड़ने के लिए कोट्टपाल आदि दौड़ने लगे। हार को छोड़कर के दौड़ता हुआ वह श्मसान में सोमदत्त बटुक को देखता है और पूछता है-यहाँ क्या कर रहे हो? उसने सब कह दिया। णमोकार मंत्र को सुनकर के छुरी को लेकर के वृक्ष पर चढ़कर के सीके में बैठ गया, सीके में बैठकर के निःशंक होकर के एक बार में ही समस्त रस्सियों के समूह को उसने काट दिया। उसी समय पर वह पूर्ण मंत्र के विस्मरण होने जाने से उसे पढ़ता नहीं है और विचार करता है कि उस श्रेष्ठी ने अंत में आणम् ताणम् इत्यादि कहा था इसलिए वह भी आणम ताणम न किंच जाणे सेट्ठी वयणं प्रमाणं अर्थात् आणम ताणम में कुछ नहीं जानता श्रेष्ठी के वचन प्रमाण हैं। इस मंत्र से उसने विद्या सिद्ध कर ली। सिद्धि को प्राप्त हुई विद्या पूछती है-आज्ञा प्रदान करें। चोर ने कहा-जिनदत्त श्रेष्ठी के निकट ले चलो, उसी समय पर श्रेष्ठी सुदर्शनमेरु के चैत्यालय में पूजा करते हुए स्थित थे। एक ही क्षण में विद्या के द्वारा वह चोर उनके समीप ले जाया गया। श्रेष्ठी के चरणों को स्पर्श करते हुए कहता है जिस प्रकार आपके उपदेश से विद्या सिद्ध हुई है उसी प्रकार परलोक की सिद्धि की विद्या भी प्रदान करें। श्रेष्ठी चोर को चारणऋद्धिधारी मुनि के समीप ले जाते हैं और वहाँ पर वह चोर दिगम्बर दीक्षा को ग्रहण करके, घोर तप को करके कैलाशपर्वत पर केवलज्ञान को उत्पन्न करके मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।

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