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चन्देल शासकों के अनेक तान्त्रिक चिह्न प्राप्त हुए हैं। इस समय आचार्य परम्परा का महत्त्व बढ़ गया था और वे मठाधीशों- जैसे भोगविलास में लिप्त रहने लगे थे । नग्न योगियों तथा योगिनियों और उनके साथ दाढ़ीधारी शैव-साधुओं का आलेखन खजुराहो, भेड़ाघाट, त्रिपुरी, चाँदपुर, चन्द्रेह (सीधी), गुर्गी (रीवाँ), जांजगीर, उदयपुर आदि में उपलब्ध होता है ।
( 4 ) कच्छपघात शैली
इस शैली में कला का आलंकारिक पक्ष अत्यन्त प्रबल हो उठा । भित्तियों और स्तम्भों आदि का कोई भी भाग अलंकरणरहित नहीं छोड़ा जाता था । प्राकृतिक दृश्यों के स्थान पर मानव - मूर्तियाँ अंकित होने लगीं, उनमें भी अप्सराओं और योगिनियों आदि के अंकन अधिकांश होते थे । परन्तु मूर्तियों में रूढ़ि और एकरूपता की अधिकता और मौलिकता का अभाव बढ़ता गया । शिखर का प्रायः वही रूप रहा, जो पहले था। उसकी लम्बाई में भी कोई अन्तर नहीं आया ।
3. देवगढ़ की मन्दिर - वास्तु: स्वरूप और प्रमुख विशेषताएँ
मन्दिरर- वास्तु के उद्भव और विकास की विभिन्न युगीन प्रवृत्तियों की पृष्ठभूमि में अब हम देखेंगे कि देवगढ़ में मन्दिर - वास्तु का स्वरूप क्या रहा, उसकी प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं और समकालीन प्रवृत्तियों का आदान-प्रदान उसमें कहाँ तक हुआ । इसके लिए, यहाँ के प्रायः सम्पूर्ण स्थापत्य को एक इकाई मानकर उसका तीन दृष्टियों से अध्ययन करेंगे : भूमि तथा उपकरण, निर्माता और निर्माणकाल, शैलीगत विशेषताएँ और अलंकरण ।
(1) भूमि तथा उपकरण
देवगढ़ के स्थापत्य का निर्माण एक समतल अधित्यका' पर हुआ है। उसकी
1. (अ) वही, 11 अगस्त, 62, पृ. 261
(ब) प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी : गुप्त तथा मध्यकालीन मूर्तिकला : कल्पना, जनवरी 1962,
पृ. 51
2. प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी: मध्यप्रदेश का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अनुशीलन : सागर विश्वविद्यालय, पुरातत्त्व पत्रिका, संख्या 1, 1967, पृ. 87।
3. टक्कुर फेरु : वास्तुसार प्रकरण : अध्याय 1. श्लोक 9-10 1
4. यह अधित्यका लगभग 1 मील लम्बी और 6 फर्लांग चौड़ी है, जिसके मध्य 8 एकड़ 20 डिसमिल भूमि पर 'जैन स्मारक' विद्यमान हैं।
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98 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
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