________________
'भापा, वेशभूषा तथा प्रसाधन, आमोद-प्रमोद, आर्थिक जीवन इत्यादि का पर्याप्त विवरण प्राप्त होता है।
देवगढ़ के अभिलेख वहाँ की कला तथा सामाजिक जीवन के इतिहास की ही कहानी नहीं कहते प्रत्युत भारतीय भूगोल एवं प्राचीन इतिहास के अध्ययन के लिए भी प्रभूत सामग्री उपलब्ध कराते हैं और नागरी लिपि का विकास क्रम भी सूचित करते हैं।
प्रबन्ध के अन्त में संलग्न किये गये परिशिष्ट तथा 124 चित्र एवं विन्यास रूपरेखाएँ समग्र विवेचन के साथ अपना निजी वैशिष्ट्य रखते हैं। देवगढ़ के सभी जैन अभिलेखों का एक साथ विवरण एवं विशिष्ट अभिलेखों का मूलपाठ भी प्रस्तुत किया गया है। कला और संस्कृति के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित इतने अधिक चित्र भी अन्यत्र नहीं सँजोये गये। वस्तुतः ये चित्र एवं विन्यास रेखाएँ देवगढ़ की जैन कला के अध्ययन का एक अनिवार्य और अभिन्न अंग हैं। इनके माध्यम से भारतीय मूर्तिकला एवं मन्दिर-वास्तु के अध्ययन के लिए अनेक नवीन आयाम उद्घाटित होंगे।
इस प्रकार भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के व्यापक परिप्रेक्ष्य में किया गया देवगढ़ की जैन कला का यह सांस्कृतिक अध्ययन वहाँ के स्थापत्य, शिल्प तथा सांस्कृतिक जीवन के अध्ययन का एक विनम्र प्रयत्न है।
कतिपय शोचनीय तथ्य
प्रारम्भ में देवगढ़ के स्थपतियों और शिल्पियों ने अध्यात्मप्रधान कृतियाँ निर्मित की। कालान्तर में भट्टारकों के प्रभाव की वृद्धि के साथ यह प्रवृत्ति क्षीण होती गयी
और उत्तरोत्तर भौतिक उपलब्धियों पर बल दिया जाने लगा। फलस्वरूप कला में निखार और विविधता तो अवश्य आयी, परन्तु उसमें प्राणतत्त्व का ह्रास होता गया। सात्त्विकता और मौलिकता गुप्तोत्तर काल में क्षीण से क्षीणतर होती गयीं। भले ही यह तथ्य भारतव्यापी हो, पर इसके लिए देवगढ़ भी कम उत्तरदायी नहीं है।
देवगढ़ के भट्टारकों ने जैन कला को कितना ही समृद्ध बनाया हो, पर उन्होंने जैन साहित्य की ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। इस दृष्टि से देवगढ़ का महत्त्व एकांगी रह जाता है।
यहाँ के कलाप्रेरकों और कलाकारों का झुकाव गुणवत्ता की अपेक्षा परिमाण की ओर अधिक रहा है। यही कारण है कि यहाँ सहस्रों मूर्तियाँ गढ़ी गयीं, पर कलागत विलक्षणता की दृष्टि से गिनी-चुनी मूर्तियों का ही उल्लेख किया जा सकता
कुछ मन्दिरों की, विशेषतः उपत्यका के मन्दिरों की भूमि का चयन उपयुक्त न हो सका। फलस्वरूप वे समय के प्रवाह में उलझकर रह गये। अधित्यका पर
उपसंहार :: 269
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org