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देवी-देवताओं की उपासना को हम धर्म की सीमाओं में बाँधे या न बाँधें, पर उसका प्रचार देवगढ़ में बहुत रहा है। सैकड़ों की संख्या में प्राप्त हुई उनकी मूर्तियाँ ' निर्विवाद रूप से घोषित करती हैं, कि देवगढ़ का समाज चमत्कार को नमस्कार करता था । और धीरे-धीरे आध्यात्मिकता से भौतिकता की ओर झुकता जा रहा था, यह एक दोष हो सकता है । किन्तु यह दोष केवल देवगढ़ तक अथवा जैन धर्म तक ही सीमित नहीं था, बल्कि अखिल भारतीय स्तर पर इस दोष की जड़ें जम चुकी थीं। बौद्ध धर्म में वज्रयानी शाखा के साथ, वैदिक धर्म में कौल और कापालिक तथा जैन धर्म में भट्टारकों ने धर्म के नाम पर ऐहिक सुखों की प्राप्ति और वासनाओं की तृप्ति के बीसों बहाने खोज निकाले। उन्होंने विभिन्न देवी-देवताओं और मन्त्र-तन्त्र आदि की कल्पित कथाओं और चमत्कारों द्वारा समाज को मोहित कर लिया। उनकी यह मोहनशक्ति गुप्तोत्तरकाल से दृढ़ से दृढ़तर होती गयी और मुगलकाल के समाप्त होते-होते क्षीण हो चली। उसके अवशेष काश्मीर के कौलों, मथुरा, बनारस आदि के पण्डों और दक्षिण भारत के भट्टारकों आदि के रूप में आज भी विद्यमान हैं । देवगढ़ इस सम्पूर्ण प्रक्रिया से अछूता नहीं रहा । वहाँ भट्टारकों की एक सबल परम्परा शताब्दियों तक विद्यमान रही 2 जिसने वहाँ के समाज की तथाकथित धर्मपरायणता को अक्षुण्ण बनाये रखने में सराहनीय योगदान दिया ।
1. कुछ विशिष्ट देव - देवियों की मूर्तियों के लिए दे. - चित्र सं. 19, 20 तथा 95 से 113 तक । 2. डॉ. कस्तूरचन्द्र कासलीवाल को एक ऐसी पट्टावली प्राप्त हुई है, जो अब तक अनुपलब्ध थी। इस पट्टावली से हमारे उक्त कथन की सप्रमाण पुष्टि होती है । "यह पट्टावली एक पत्र के रूप में लिखी हुई है। पत्र वागीदोरा गाँव से देवगढ़ नगर को लिखा गया था । पत्र के प्रारम्भ में वहाँ के प्रतिष्ठित सज्जनों के नाम दिये गये हैं। फिर लिखा गया है कि सं. 1300 से 1400 तक गुजरात में दिगम्बर जैनधर्म की अच्छी दशा नहीं थी किन्तु जब भट्टारक सकलकीर्ति ने उधर विहार किया और अपनी भट्टारक गद्दी स्थापित की, तब से वहाँ धर्म की उन्नति होती गयी। पत्र में सकलकीर्ति की मृत्यु संवत् 1499 में महसाना नगर में होना लिखा है। मृत्यु के समय ये 56 वर्ष के थे। इनके पीछे आचार्य धर्मकीर्ति भट्टारक बने। इन्होंने सागवाड़ा के आदिनाथ के मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया और नौगाँव में अपनी भट्टारक गद्दी की स्थापना की। ये 24 वर्ष तक भट्टारक रहे, इनके पश्चात् विमलेन्द्र कार्ति भट्टारक हुए जो 12 वर्ष तक जीवित रहे। इधर आत्रीय (आतरी) गाँव में भट्टारक भुवनकीर्ति का पट्टाभिषेक हुआ। भुवनकीर्ति के पश्चात् भट्टारक ज्ञानभूषण एवं विजयकीर्ति हुए। इसी समय सागवाड़ा एवं नौगाँव में एक ही दिन दो अलग-अलग प्रतिष्ठाएँ हुई। पत्र के अनुसार इन प्रतिष्ठाओं के समय बड़साजन एवं लोहडसाजन की उत्पत्ति हुई। जिसमें बड़साजनों के भट्टारक विजयकीर्ति एवं लोहडसाजनों के भट्टारक रत्नकीर्ति कहलाने लगे। भट्टारक रत्नकीर्ति के पश्चात् संवत् 1805 तक कितने ही भट्टारक हुए, जिनका इस पट्टावली में नामोल्लेख हुआ है। अन्तिम भट्टारक अमरचन्द थे, जो भट्टारक देवचन्द्र की मृत्यु के पश्चात् गद्दी पर बैठे थे। पट्टावली में सभी भट्टारकों के नामों का उल्लेख हुआ है। पट्टावली हिन्दी गद्य में है जिसमें गुजराती भाषा के शब्दों का बाहुल्य है। पट्टावली संवत् 1805 की लिखी हुई है, तथा भट्टारकीय शास्त्र भण्डार
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238 की जैन कला एक सांस्कृतिक अध्ययन
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