________________
केन्द्र स्थापित हो गये थे कि उनमें चिकित्सा और धनुर्विद्या आदि विषयों का उच्चकोटि का शिक्षण दिया जाता था और उनके हजारों विद्यार्थियों में बहुत से विदेशी भी होते थे। इनके अतिरिक्त वन-उपवनों में भी शिक्षा दी जाती थी। साहित्यिक उल्लेखों के अतिरिक्त प्राचीन कला के कुछ ऐसे अवशेष भी मिले हैं, जिनमें गुरुओं
और विद्यार्थियों के विविध प्रकार से अंकन द्रष्टव्य हैं। मथुरा के एक वेदिकास्तम्भ पर एक अध्यापक शिष्यों को व्याख्यान देते हुए आलिखित है।
अजन्ता के चित्रों में एक दण्डधारी गुरु पट्टीधारी शिष्यों को पढ़ाते हुए चित्रित हैं। तिलमुट्ठि नामक बौद्ध जातक (संख्या 252) में एक शिष्य को गुरु ने अन्य दो शिष्यों की सहायता से इसलिए पीटा था कि उसने एक बुढ़िया के तिल चुराये थे। गान्धारकला के एक प्रतिनिधि शिलापट्ट पर अध्ययनार्थ रथ पर जाते हुए कुमार गौतम अंकित हैं, साथ में उनके सहपाठी भी दावातें और पट्टियाँ लिये हुए जा रहे हैं। भुवनेश्वर के राजरानी मन्दिर में एक पण्डित जी और उनके शिष्यों का चित्रण बड़ा प्रभावोत्पादक बन पड़ा है। देवगढ़ में पाठशाला-दृश्यों की बहुलता है। उनमें गुरु-शिष्यों के अंकन इस तथ्य के पोषक हैं कि तत्कालीन समाज शिक्षा के माध्यम से अपने व्यक्तित्व के समीचीन विकास में संलग्न था।
5. लिपि और भाषा
देवगढ़ के प्राचीन अभिलेखों में क्रमशः संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी भाषाएँ प्रयुक्त हुई हैं। प्राचीनतम अभिलेख अभी तक अंशतः पढ़ा जा सका है। उससे प्रतीत होता है कि उसमें अठारह भाषाओं और अठारह लिपियों का प्रयोग हुआ है। भारत में यह अभिलेख अपने ढंग का अद्वितीय है। उसकी लिपि अशोककालीन ब्राह्मी से भी समानता रखती है। जो लिपियाँ इस शिलापट्ट पर 1. अब यह शिलापट्ट लन्दन के विक्टोरिया अल्बर्ट संग्रहालय में सुरक्षित है। 2. और भी देखिए--प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी : प्राचीन कला में गुरु-शिष्यों का चित्रण : त्रिपथगा
(लखनऊ, 1956 ई.), पृ. 1-41 3. यह जैन धर्मशाला में सुरक्षित है। दे.-चित्र सं. 49। 4. प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी : देवगढ़ की जैन प्रतिमाएँ : अनेकान्त, दिल्ली, वर्ष 15, किरण 1 (अप्रैल, ___1962 ई.), पृ. 27। 5. दयाराम साहनी : ए.प्रो. रि. भाग दो--1918 ई., पृ. 10 पर इस अभिलेख के सम्बन्ध में विचार
किया गया है- "इस मन्दिर के उत्तरी बरामदे में मुझे एक महत्त्वपूर्ण अभिलिखित शिलापट्ट (3 फुट 2 इं. ४ | फुट 5 इं.) मिला है, जो उस अभिलेख के अनुसार ज्ञानशिला कहलाता है। उसमें 18 भाषाओं और 18 लिपियों का प्रयोग हुआ है। यह अभिलेख 'साषा (खा) नाम्दी' के द्वारा लिखाया गया था। यह देखना उपयोगी होगा कि प्रथम जिनऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी वर्तमान कालचक्र के सुपमा-दुपमाकाल में उत्पन्न हुई, उसने 18 विभिन्न वर्णमालाओं का आविष्कार
सामाजिक जीवन :: 241
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org