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अधिक बल देते थे। परन्तु शैवों के वाममार्गी साधु जिनसे चन्देल शासक प्रभावित रहे, नैतिकता को कदाचित् शब्दों तक ही सीमित रखते थे। वे स्थूल भौतिकता और वासनाओं से भरा जीवन स्वयं बिताते और जनता को भी अपना पथगामी बनाते थे। उनकी इस प्रवृत्ति ने नौवीं से तेरहवीं शती तक की कला को अधिकाधिक प्रभावित किया, तभी तो चन्देलों के समय तक मूर्तियों से मौलिकता और संयम प्रायः लुप्त हो गये और उनमें अश्लीलता तथा कुत्सित अंकनों की प्रधानता हो गयी। कच्छपघातों के समय तक यह दोष अपनी चरमसीमा तक पहुंच गया। इस समय की मूर्तियों में मांसलता, अस्वाभाविक किन्तु कामोत्तेजक लोच, सम्भोगों के विविध आसन आदि अत्यन्त विकृत रूप में प्रस्तुत किये जाने लगे। इस समय की और गुप्तकाल की कला में एक बहुत बड़ा अन्तर स्पष्ट हो गया है। देवगढ़ में भी कला के इस क्रमिक ह्रास को देखा जा सकता है। जहाँ तक वेशभूषा और प्रसाधन का प्रश्न है, वह कला में सांसारिकता की वृद्धि के साथ समृद्ध और आकर्षक होती गयी।
देवगढ़ में पुरुषवर्ग की वेशभूषा अधिक भड़कीली नहीं थी। पुरुषवर्ग की वेशभूषा के अध्ययन के लिए हम उसे साधु और गृहस्थ के अवान्तर भेदों के अन्तर्गत प्रस्तुत करेंगे।
1. साधु-संस्था
(अ) दिगम्बर साधु : दिगम्बर साधु कोई वस्त्र नहीं पहनते थे। दिक् (दिशाएँ) ही उनके 'अम्बर' (वस्त्र) होते थे, इसलिए उन्हें 'दिगम्बर'2 साधु कहा जाता था। साधुओं के दिगम्बर (नग्न) रहने की प्रथा हजारों वर्ष प्राचीन है और आज भी विद्यमान है। दिगम्बर साधु जीवों की रक्षा के लिए पीछी रखते थे। मल-मूत्र-त्याग के पश्चात् शुद्धि के लिए जल रखने को वे कमण्डलु भी रखते थे।' ये साधु उक्त दो उपकरणों के अतिरिक्त रंचमात्र भी परिग्रह नहीं रखते थे। यहाँ तक कि वे अपने भोजन के प्रति भी चिन्तित नहीं होते थे।
(ब) भट्टारक : जैसा कि कहा जा चुका है, मुनियों का एक रूपान्तर और भी था, जिसे 'भट्टारक' कहते थे। वे आजकल के ब्रह्मचारियों की भाँति दो वस्त्र पहनते थे, एक अधोवस्त्र (धोती) और दूसरा उत्तरीय। इनके गले में एक माला भी पड़ी रहती थी, जिससे वे जपमाला का काम लेते होंगे।
1. द्रष्टव्य-व्र. शीतलप्रसाद : वृहत् जैनशब्दार्णव : द्वितीय खण्ड (सूरत 1934), पृ. 492-93 । 2. 'नग्नोऽवासा दिगम्बरे' द्रष्टव्य-अमरकोष, 3-1-391 3. दे.--विभिन्न पाठशाला-दृश्य तथा चित्र सं. 77 से 83 और 85 । 4. वही।
सामाजिक जीवन :: 243
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