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(स) ऐलक: ऐलक केवल 'कोपीन' पहनते थे और साधु की भाँति पीछी और कमण्डलु रखते थे।
(द) क्षुल्लक : क्षुल्लक, 1 जिनकी मूर्तियाँ देवगढ़ में नहीं मिली हैं, कोपीन के अतिरिक्त 'खण्डवस्त्र' (उत्तरीय) भी रखते थे । ये भी पीछी - कमण्डलु रखते थे। (इ) आर्यिका : आर्यिकाओं की वेशभूषा संयत और सामान्य थी। साड़ी और उपरिवस्त्र के अतिरिक्त पीछे कमण्डलु भी रखती थीं (दे. चित्र संख्या 92 ) ।
2. गृहस्थ-संस्था
(अ) पुरुष : पुरुषवर्ग धोती पहनता था ।" आश्चर्य है कि देवगढ़ में कमर से ऊपर के किसी वस्त्र का अंकन एक भी पुरुषमूर्ति में उपलब्ध नहीं हुआ है । कुछ ब्रह्मचारी अवश्य ही तनीदार दोहरी छाती की अँगरखी पहनते थे।' इस अँगरखी की बनावट इस प्रकार की आधुनिक अँगरखी से इतनी अधिक समानता रखती है कि सम्बन्धित मूर्ति की प्राचीनता पर सन्देह होने लगता है । कुछ पुरुष तुर्की टोपी लगाते थे । एक ऐसी पुरुषाकृति भी अंकित है, जो फुलपैण्ट के जेबों में हाथ डाले हुए पुरुष के समान प्रतीत होती है। इसी प्रकार एक पुरुष कन्धे पर झोली डाले दिखाया गया है। 10 जनेऊ (यज्ञोपवीत) पहनने का रिवाज था (दे. चित्र संख्या 98) I
पुरुष प्रायः वे ही आभूषण धारण करते थे जो स्त्रियाँ धारण करती थीं । यह बात आधुनिक परिप्रेक्ष्य में आश्चर्यजनक प्रतीत होती है। उनकी केशसज्जा भी स्त्रियों के समान ही होती थी । प्रायः सभी पुरुष क्षौरकर्म कराते थे । यद्यपि इस कार्य में संलग्न कृति का अंकन यहाँ कहीं नहीं हुआ है। कुछ पुरुष मुगलों जैसी दाढ़ी
1. ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक, क्षुल्लक से श्रेष्ठ ।
2. द्रष्टव्य - बृहत् जैनशब्दार्णव: भाग दो, पृ. 4071
3. आचार्य वसुनन्दि : वसुनन्दि श्रावकाचार (काशी, 1952 ई.), भूमिका, पृ. 63-61 तथा गाथा
3111
4. वही, भूमिका, पृ. 62-63 तथा गाथा 302-10।
5. बृहत् जैन शब्दार्णव : द्वितीय खण्ड, पृ. 434 ।
6. दे. - चित्र सं. 52, 53, 60, 74, 104, 107, 119, 121, 122 आदि ।
7. दे. - मं. सं. 10 के उत्तरी स्तम्भ पर ( पूर्व की ओर) तथा चित्र सं. 94 ।
8. दे. - मं. सं. छह और पन्द्रह में स्थित मूर्तियाँ और भी दे. - चित्र सं. 52 और 53 में चंवरधारी ।
9. मं. सं. 11 के महामण्डप के प्रवेश द्वार की देहरी पर ।
10. मं. सं. एक के मण्डप में । दे. - चित्र सं. 80 |
244 :: देवगढ़ की जैन कला एक सांस्कृतिक अध्ययन
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