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शती पश्चात् हुआ होगा; कुछ दिन पूर्व तक इन लघु-मन्दिरों में यक्षियों की दो मूर्तियाँ स्थापित थीं, जिससे प्रतीत होता है कि ये किसी ऐसे भट्टारक की प्रेरणा से निर्मित किये गये होंगे जिसके विचार से गर्भगृह में प्रवेश करने से पूर्व विशिष्ट स्थान में स्थापित यक्षी-मूर्ति का दर्शन अनिवार्य होता था। विचारों की यह कट्टरता भट्टारकों में नौवीं शती के पश्चात् आयी थी। अतः कहा जा सकता है कि इन लघु-मन्दिरों का निर्माण भी नौवीं शती के पश्चात् हुआ होगा, जब अन्तराल निर्मित हो चुका था।
प्रदक्षिणापथ : प्रदक्षिणापथ गर्भगृह से परवर्ती कृति है। बहिर्भित्तियों में संयोजित जालीदार कटाव तथा चौबीस-यक्षियों की मूर्तियों के कारण यह जैन स्थापत्य में ही नहीं, अखिल भारतीय स्थापत्य में भी अनुपम बन पड़ा है। खजुराहो
और भेड़ाघाट में चौंसठ-योगिनियों की मूर्तियों का प्रदर्शन निश्चय ही इस प्रसंग में विचारणीय है। सतना जिले में पतौरा ग्राम के समीप ‘पतियानदाई' नाम का एक मन्दिर है।
उसमें जो मूर्तिफलक प्राप्त हुआ था, उस पर चौबीस-यक्षियों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। यक्षियों के साथ उनके नाम भी उन पर अंकित हैं। इस फलक और प्रस्तुत बहिभित्तियों की संयोजना की तुलना की जा सकती है। दोनों की यक्षियाँ प्रायः खड़ी और दो हाथोंवाली हैं। दोनों स्थानों पर उनके उपास्य तीर्थंकर भी अंकित हुए हैं, देवगढ़ में यक्षियों के ऊपर मस्तक पर, और उस शिलाफलक पर यक्षियों की पंक्ति को आवेष्टित करनेवाली दूसरी पंक्ति में। दोनों स्थानों पर यक्षियों के नाम उत्कीर्ण हैं और दोनों के ही नामों में भाषागत और क्रम सम्बन्धी अशुद्धियाँ हुई हैं, यहाँ तक कि कुछ नाम छूट गये हैं और कुछ की द्विरुक्ति हो गयी है।
___ बहिर्भित्तियोंवाली मूर्तियों का आकार लगभग । फुट 3 इंच है और उनमें से प्रत्येक पृथक्-पृथक् शिलाफलकों पर उत्कीर्ण हैं, जबकि अन्यत्र वे सब एक ही शिलाफलक पर अंकित हैं और इसीलिए उनका आकार बहत छोटा है। कला, भावाभिव्यक्ति और लिपि से प्राप्त निष्कर्ष देवगढ़ के अंकन को पूर्ववर्ती सिद्ध करते हैं, यद्यपि यह अन्तर लगभग दो शतियों से अधिक नहीं हो सकता।
1. इन्हें अब वहाँ से जैन धर्मशाला में स्थानान्तरित कर दिया गया है और वहाँ अन्य मूर्तियाँ स्थापित
कर दी गयी हैं, जिनमें से एक खड़ी सरस्वती (चित्र 95) की भी है। इनमें पहले स्थापित मूर्तियों
के लिए देखिए--चित्र संख्या 99 और 106 । 2. इस मन्दिर के विस्तृत परिचय के लिए देखिए-पं. गोपीलाल अमर, 'पतियानदादं : एक ___ गुप्तकालीन जैन मन्दिर' : अनेकान्त, वर्ष 19, किरण 6, पृ. 340-46 । 3. अब यह मूर्तिफलक प्रयाग संग्रहालय में प्रदर्शित है। इसके विस्तृत विवरण के लिए देखिए--पं.
गोपीलाल अमर, 'पतियानदाई की अद्वितीय प्रतिमा', जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग 25, किरण दो, पृ. 40-43 ।
106 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
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