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हैं, जिन्हें हम दृष्टि से ओझल नहीं कर सकते । तीर्थंकर के दोनों ओर (1) चँवर डुलाते हुए यक्षेन्द्र और उनकी इन्द्राणियाँ, ( 2 ) तीर्थंकर की वाणी को दुन्दुभि पीट-पीटकर तीन लोक में गुँजा देनेवाला उद्घोषक', (3) उच्च श्रेणी के देव - देवियों की, छाया की भाँति साथ रहकर सेवा टहल करनेवाले परिचारक-परिचारिकाएँ, (4) स्तम्भों, गवाक्षों और देवकुलिकाओं आदि के अलंकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करनेवाले कीर्तिमुख, ( 5 ) भवन की छत का विपुल भार धारण करनेवाले शक्तिशाली कीचक, (6) अनधिकारियों और आततायियों को मन्दिर के भीतर प्रवेश का निषेध करनेवाले दण्डधारी द्वारपाल और ( 7 ) समग्र तीर्थ क्षेत्र की रक्षा करनेवाले क्षेत्रपाल आदि की मूर्तियाँ अन्य स्थानों की भाँति देवगढ़ में भी यथास्थान प्राप्त होती हैं ।
इस प्रकार, इस अध्याय में देवगढ़ में मूर्तिकला के क्रमिक विकास और मुख्य विशेषताओं का प्रदर्शन करके तीर्थंकरों तथा देव - देवियों की मूर्तियों पर प्रकाश डाला गया है । शेष मूर्तियों और प्रतीकों का विश्लेषण तथा इस प्रकरण का उपसंहार अग्रिम अध्याय में किया जाएगा।
1. (अ) उद्घोषक के साधारणतः दो हाथ दिखाये जाते हैं, परन्तु यहाँ के मं. सं. 28 के शिखर पर ( दक्षिण की ओर ) एक उद्घोषक के चार हाथ भी दिखाये गये हैं ।
(ब) देवगढ़ के ही एक प्रतिनिधि उद्घोषक के विवरण सहित चित्र के लिए देखिए - प्रो. स्टेला क्रेमरिश : दी हिन्दू टेम्पल जिल्द दो, पृ. 397 तथा फलक 55 1
2. (अ) देवगढ़ में इसकी दो मूर्तियाँ मिली हैं, ( 1 ) मं.सं. एक के पीछे स्थित मानस्तम्भ पर (दे. - चित्र सं. 113) और (2) मं.सं. 12 के अर्धमण्डप के स्तम्भ पर ।
(ब) क्षेत्रपाल की मूर्ति के शास्त्रीय लक्षण के लिए देखिए ( 1 ) 'ओम् नमः क्षेत्रपालाय कृष्णगौरकाञ्चनधूसरकपिलवर्णाय विंशतिभुजदण्डाय बर्बरकेशाय जटाजूटमण्डिताय वासुकिकृतजिनोपवीताय तक्षककृतमेखलाय प्रेतासनाय कुक्कुरवहनाय विलोचनाय च ।' (2) 'क्षेत्रपालं क्षेत्रानुरूपनामानं श्यामवर्णं बर्बरकेशमावृत्तपिंगनयनं विकृतदंष्ट्रं पादुकाधिरूढं नग्नं कामचारिण षड्भुजं मुद्गरपाशडमरुकान्वितदक्षिणपाणिं श्वानांकुशगेडिकायुतवामपाणि श्रीमद्भगवतो दक्षिणपार्श्वे ईशानाश्रितं दक्षिणाशामुखमेव प्रतिष्ठाप्यम् ।'
- डॉ. द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल : वास्तुशास्त्र ( भाग 2 ), आचार दिनकर से उद्धृत, पृ. 2751
166 :: देवगढ़ की जैन कला एक सांस्कृतिक अध्ययन
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