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पर विराजमान होकर ही तीर्थंकर उपदेश देते हैं । '
उक्त पद्धति पर तो कदाचित् ही कोई मन्दिर बना हो, किन्तु उसका भाव समवशरण की रचना प्रस्तुत करना ही होता है ।
श्रीमण्डप : समवशरण का एक अंग श्रीमण्डप' कहलाता है। इस श्रीमण्डप की समानता हम देवगढ़ के जैन मन्दिर संख्या बारह के महामण्डप ( चित्र संख्या 17 ) से कर सकते हैं।
सहस्रकूट : सहस्रकूट का प्रतिनिधित्व देवगढ़ में अत्यन्त भव्य रूप में हुआ है । 1 मं. सं. पाँच (चित्र पाँच) का निर्माण कदाचित् इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया गया था । यह प्रतीक यहाँ और बानपुर आदि में लोकप्रिय था, जहाँ वह आज भी अखण्ड रूप में देखा जा सकता है, जबकि आमनचार तथा सेरोन में अनेक सहस्रकूटों के खण्ड विद्यमान हैं।
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मानस्तम्भ : मानस्तम्भ समवशरण का वह भाग होता था, जो तीर्थंकर के मान ( औन्नत्य या महत्ता ) का प्रतीक होता है और जिसके मान ( ऊँचाई) को देखकर अभिमानियों का मान चूर्ण हो जाता है। देवगढ़ की जैन कला में इस प्रतीक का अनेक स्थानों में निदर्शन प्राप्त होता है । वहाँ उन्नीस मानस्तम्भ अब भी विद्यमान हैं ।"
चैत्यवृक्ष : चैत्यवृक्ष' वे वृक्ष कहलाते हैं जिनके नीचे अष्ट-प्रातिहार्य सहित अरिहन्त मूर्ति हो । देवगढ़ में स्वतन्त्र रूप से इन चैत्य - वृक्षों का अंकन नहीं हुआ, पर पद्मावती आदि देवियों और कुछ साधु-मूर्तियों के पृष्ठभाग में अंकित किये गये वृक्षों को चैत्यवृक्ष माना जा सकता है।
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अष्टप्रातिहार्य : अष्ट-प्रातिहार्य का अंकन देवगढ़ की प्रायः सभी तीर्थंकर
1. दे. - आदिपुराण, पर्व 23, श्लोक 201
2. दे. - (अ) ठक्कुर फेरु: वास्तुसार प्रकरण (जयपुर, 1936), प्रकरण तीन, श्लोक 51 । (ब) डॉ. हीरालाल जैन : भा.सं. जै. यो., पृ. 297।
3. दे. - रेखाचित्र क्र. 39 ।
4. दे. - चित्र सं. 7 और 8 ।
5. यह स्थान देवगढ़ से पश्चिम में छह मील दूर है । वहाँ अनेक मन्दिरों के खँडहर और बहुत-सी मूर्तियाँ अस्त-व्यस्त पड़ी हैं। सहस्रकूट का एक खण्डित भाग भी वहाँ के स्थानीय जैन मन्दिर में रखा है।
6. सेरोन के मं.सं. दो के बाहर तथा मं. सं. छह के गर्भगृह में सहस्रकूट-खण्ड देखे जा सकते हैं। 7. कुछ महत्त्वपूर्ण एवं प्रतिनिधि मानस्तम्भों के लिए दे. - चित्र सं. 43 48 तक ।
8. 'वेलुरियफला विदुमविसालसाहा दसप्पयारा ते ।
-- त्रिलोकसार, गाथा 1012 |
पल्लंक पाडिहेरग चउदिसमूलगय जिणपडिमा ||' 9. अष्ट प्रातिहार्य हैं - अशोकवृक्ष, सिंहासन, छत्रत्रय, प्रभामण्डल, दिव्य-ध्वनि, पुष्पवृष्टि, चंवरधारी यक्ष और दुन्दुभिधारी उद्घोषक । और भी देखिए - (अ) अपराजितपृच्छा, पृ. 5651 (ब) प्रतिष्ठासारोद्धार. अ. चार, श्लोक 205-212 | ( स ) त्रिकालवर्ती महापुरुष, पृ. 77-81 |
196 :: देवगढ़ की जैन कला एक सांस्कृतिक अध्ययन
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