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शुभचन्द्र,' श्रुतसागर- और ब्रह्म नेमिदत्त' आदि बहुत से साहित्यकार इसी बलात्कारगण के भट्टारकों में से थे।
सेनगण के भट्टारक अपने नाम और परिचय के साथ मूलसंघ, पुष्करगच्छ, वृषभसेनान्वय का प्रयोग करते हैं जबकि बलात्कारगण के भट्टारक मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ और कुन्दकुन्दान्वय जैसे विशेषणों का। भूमिदान ग्रहण करने, मूर्तियों पर प्रतिष्ठा लेख लिखने या लिखवाने तथा ग्रन्थों की प्रशस्तियों में इन विशेषणों का प्रयोग प्रायः किया गया है।
भट्टारक स्थिति
तत्कालीन स्थिति के अनुशीलन से स्पष्ट है कि उक्त प्रकार के विशेषणों के प्रयोग शिथिलाचारी नग्न भट्टारकों या सवस्त्र भट्टारकों ने ही किये हैं, मूलसंघ के प्राचीन माननीय आचार्यों ने नहीं।
उक्त भट्टारकों ने जो अपने को मूलसंघ का निर्दिष्ट किया है, उसका कारण यह है कि उनके समय में काष्ठासंघ आदि अनेक संघों के भट्टारकों का भी अस्तित्व था और वे उनसे अपना पृथक्त्व प्रदर्शित करना चाहते थे। अतः उन्होंने 'मूलसंघी' विशेषण ग्रहण किया।
वस्तुतः मूलसंघ में श्रेष्ठ मुनियों के लिए जिस प्रकार की चर्या का विधान है, उस दृष्टि से इन्होंने 'मूलसंघी' विशेषण नहीं ग्रहण किया क्योंकि वे स्वतः स्वरचित ग्रन्थों में मुनियों की वैसी ही चर्या का वर्णन करते हैं जैसी कि प्राचीन मूलसंघ के आचार्यों ने प्रतिपादित की है। यह अवश्य है कि श्रुतसागर आदि कतिपय भट्टारकों ने कहीं-कहीं शिथिलाचार का भी पोषण किया है।
(ई) डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन : दिल्लीपट्ट के मूलसंधी भट्टारकों का समयक्रम : अनेकान्त, वर्ष 17, किरण 2, पृ. 56 । (उ) बीकानेर जैन लेख संग्रह, संख्या 1875 । (ऊ) पं. नाथूराम प्रेमी : जै.सा.
इ., पृ. 380-831 1. इनके विस्तृत परिचय के लिए द्रष्टव्य : (अ) पं. ना.रा. प्रेमी : जै. सा. इ., पृ. 380-84। (ब) डॉ.
ज्यो., प्र. जैन : दिल्लीपट्ट के भट्टारकों का समयक्रम : अनेकान्त, वर्ष 17, किरण 2 तथा 4, क्रमशः पृ. 56 तथा 74 और 159 । (स) वाचस्पति गैरोला : सं. सा.सं. इ., पृ. 281-82 । (द) डॉ.
कस्तूरचन्द्र कासलीवाल : राजस्थान के जैन सन्त., पृ. 93-105 तथा 160-64 । 2. इनके विस्तृत और प्रामाणिक परिचय के लिए देखिए-(अ) पं. ना.रा. प्रेमी : जै. सा. इ.,
पृ. 371-77। (ब) वाचस्पति गैरोला : सं.सा.सं. इ., पृ. 280 । 3. इनके विस्तृत और प्रामाणिक परिचय के लिए देखिए : पं. परमानन्द शास्त्रो : ब्रह्म नेमिदत्त और ___उनकी रचनाएँ : अनेकान्त, वर्ष 18, किरण 2, पृ. 82-84 । 4. देखिए-(अ) पं. ना. रा. प्रेमी : जै. सा.इ., पृ. 371-74। (ब) मिलाप चन्द्र कटारिया : जैन
निबन्ध रत्नावली (कलकत्ता 1966 ई.), पृ. 427-29 ।
218 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
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