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ज्ञानार्णव' और समयसार आदि जैसे उच्चकोटि के आध्यात्मिक ग्रन्थ भी पढ़े जाते
थे।
5. पौराणिक कथाओं का प्रचार देवगढ़ में पौराणिक कथाओं का प्रचार पर्याप्त मात्रा में था। प्रथमानुयोग (धर्मकथा) से वहाँ के श्रावक-श्राविकाएँ तो परिचित थे ही, कलाकार भी अच्छी जानकारी रखते थे। उन्होंने अपनी छैनी को अनेक कथाओं के संक्षिप्त किन्तु विशद अंकन से पवित्र किया है।
ऋषभनाथ द्वारा आहार ग्रहण
आदि-तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव साधु होने के पश्चात् ठीक एक वर्ष उपरान्त आहार ग्रहण कर रहे हैं। राजकुमार श्रेयांस और उनके बड़े भाई राजा सोमप्रभ और भाभी रानी लक्ष्मीमती को आहार देते हुए दिखाकर" कलाकार ने प्राचीन भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता अतिथि-सत्कार को मूर्तिमान कर दिया है।
भरत-बाहुबली
चक्रवर्ती भरत और कामदेव बाहुबली की द्विमूर्तिकाएँ निर्मित करके कलाकार ने सन्देश दिया है कि भौतिक उपलब्धियों से आध्यात्मिक उपलब्धियाँ कहीं अधिक शान्तिदायक होती है।
1. आचार्य शुभचन्द्र द्वारा विरचित यह ग्रन्थ पं. पन्नालाल बाकलीवाल द्वारा सम्पादित होकर श्री
परमश्रुत प्रभावक मण्डल, जवेरी-बाग, बम्बई से 1927 ई. में प्रकाशित हुआ है। ग्रन्थ और ग्रन्थकार के विस्तृत और प्रामाणिक परिचय के लिए दे.- (अ) पं. ना. रा. प्रेमी : जै.सा.इ., पृ. 3:32-4 । (व) डॉ. ही.ला. जैन : भा.सं. जै. यो., पृ. 121। (स) पं. बालचन्द्र सि. शा. :
ज्ञानार्णव व योगशास्त्र : एक तुलनात्मक अध्ययन, अने., व. 20, कि. एक., पृ. 17-27 । 2. आ. कुन्दकुन्द द्वारा विरचित यह ग्रन्थ संस्कृत, हिन्दी, अंगरेज़ी आदि अनेक टीकाओं सहित
सम्पादित होकर विभिन्न संस्थाओं में प्रकाशित हुआ है। 3. 'प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम्। बोधिसमाधिनिधानं बोधति बोधः समीचीनः ॥'
-आचार्य समन्तभद्र : रत्नकरण्डश्रावकाचार (दिल्ली, 1951 ई.), श्लोक 43 । 1. दे...मं. सं. १' के प्रदक्षिणापथ तथा गर्भगृह के प्रवेश-द्वार। 5. आचार्य जिनसेन : महापुराण : (आदिपुराण), जिल्द एक (काशी, 1951), पर्व 20, श्लोक 100 | 6. दे.-चित्र सं. 22 और 2। 7. दे.--मं. सं. दो तथा जैन मिशाला में स्थित भरत-बाहुबली की द्विमूर्तिकाएँ। और भी दे.-चित्र
सं. 88,89 तथा 86, 871
धार्मिक जीवन : 995
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